
मैं उद्यमिता का अध्यापक हूँ। मुझे लगता है, अवसर में समानता निर्विवाद रूप से न्यायिक एवं नैतिक है। अवसर को अभियान बनाने का हुनर उद्यमी होना है।
मैं उद्दमिता क्यों पढ़ाता हूँ? क्या मेरी विचारधारा पूंजीवादी है? चलिए स्पष्ट करता हूँ। मैं किसी धर्म या ईश्वर का उपासक नहीं हूँ। धर्म की राजनीति को मैं सांपों-सपेरों का स्वांग मानता हूँ। मैं लोकतंत्र का समर्थक हूँ और नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था का पक्षधर हूँ।
जानकर आश्चर्य होगा कि अंबेडकर ने जातिवादी जटिलता की लड़ाई के लिए पूंजीवादी व्यवस्था को उचित ठहराया था। अंबेडकर मूलरूप से अर्थशास्त्री थे। द प्रॉब्लम ऑफ रूपी, इस संदर्भ में उनकी एक उल्लेखनीय पुस्तक है। कल्याणकारी राजनीति के पुरोधा अर्थशास्त्री बाबा अंबेडकर जैसे राजनेता की पूंजीवाद की कल्पना एक सदी पहले जैसी की थी, आज वो वैसी साबित नहीं हुई।
यदि समाजवाद का अति व्लादिमीर पुतिन है, तो पूंजीवाद का अति डोनाल्ड ट्रंप हैं। वास्तविक दुनिया में दोनों अस्वीकार्य हैं। वस्तुतः जापानी राजनीति ही सकल-सफल मानी जा सकती है। जसकी नींव बुद्ध मार्ग से परिलक्षित होती है। मध्यम मार्ग, उत्तम मार्ग।
नेहरू की कल्पना में मिश्रित अर्थव्यवस्था भी इसी तर्ज पर आकार लेती है। भारत के निर्माण में जहाँगीर टाटा ने भी उतनी ही निष्ठा से काम किया जितना नवरत्न कंपनियों नें किया।
अदाणी, ट्रम्प, साउथ अफ्रिका के गुप्ता बंधु पुंजीवाद के आदर्श नहीं है। पुतिन, झिनपिंग समाजवाद का पर्याय भी नहीं है। भारतीय मिमांशा में यदि वसुधैव कुटुंबकम को आदर्श व्यवस्था की संज्ञा दी जाए तो इसके केंद्र में समाजवाद, लोकतंत्र, पूंजीवाद, धार्मिक स्वतंत्रता एवं स्वामित्व के पुरुषार्थ आदि समाहित होता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट ने समाजवादी पार्टी की बुराई करते वक़्त अपने ही धर्म के मर्म, वसुधैव कुटुंबकम की अवहेलना कर डाली।
बहरहाल, लोकतांत्रिक राजनीति में अत्यधिक धन बल के अकल्पनीय उपयोग के बरक्स यदि युवाओं की नेतृत्व क्षमता को विकसित करना है तो उन्हें आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से सशक्त बनाना होगा। उद्दमिता वर्तमान भारतीय युवा पीढ़ी के लिए अवश्यंभावी है।