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छायाचित्रों का छद्म चरित्र - केरल, कश्मीर और सिनेमा



न तो केरल स्टोरी केरला वासियों के लिए बनी है और न ही कश्मीर फाइल्स से कश्मीर वासियों का कोई लेना देना है। ये दोनों फिल्में काऊ बेल्ट में रहने वालों के लिए बनाई गयी है।

इन दोनों फिल्मों को बैन करना बेवकूफी है। जिन दर्शकों को उधमसिंह, दसरथ मांझी जैसी फिल्मों की कहानियाँ आंदोलित न कर पायीं हों वो ऐसी फिल्मों से छटाक भर का तमाशा ही करेंगे और भूल जायेंगे। कश्मीर फाइल्स लोग भूल चुके हैं, केरला स्टोरी को और जल्दी भूल जायेंगे।

फिल्में तिलास्मि होती हैं। उनको देखते वक़्त भूख प्यास और अन्य चिंताओं से परे हम किरदार में घुस कर उसे महसूस करते हैं। जब मैंने आर्टिकल 15 देखी थी तो चलती बस में होता बलत्कार मैंने महसूस किया था। दसरथ मांझी फिल्म में जब गरीब के पाँव में नाल ठोंकी जा रही थी तो मैंने अपने पंजे जमोक् लिए थे। पान सिंह तोमर फिल्म से मैं भी लाश की तरह ही थियेटर से बाहर आया था। रंग दे बसंती देखने बाद पार्किंग से गाड़ी निकालते वक़्त मैंने भी ऐसेलेरेटर ऐंठे थे।

ये होता है, फिल्में देखने के बाद। फिर, रात का खाना, सुबह की उलझने हमें वापिस ला पटकतीं हैं वहीं जिस लायक हम हैं। बॉस की गाली, घर की खटपट और महीने की तंगी किसी भी साहित्य से दूर कर देती है।

केरल भारत का सबसे पढ़ा लिखा, सबसे स्वस्थ और विकसित राज्य है। जबकि वहाँ बाढ़ आना या अन्य प्राकृतिक आपदाओं का कहर उड़ीसा से कुछ ही कम है। केरल का संपर्क यूरोप और अरब देशों से सभ्यता के आरंभिक दौर से जारी है। लेकिन ये केरेला स्टोरी नहीं है। काऊ बेल्ट से 50 % अर्धगरीब नव विवाहित हनीमून मनाने केरल जाते हैं। लेकिन गॉड्स ओन कंट्री की स्टोरी ये भी नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी का दुरूपयोग या सदुपयोग जैसी बहस बेमानी है। इस्लामी अतिवाद पर फिल्म बिल्कुल बननी चाहिए। किसी भी अतिवाद पर फिल्म बननी चाहिए। जानबुझ कर नाम गलत रखने की हरकत पर मुझे दुख है। केरल करदाताओं की कहानी छोड़कर इस्लामी अतिवाद की पट कथा केरला स्टोरी कहना थोड़ा अटपटा लगा लेकिन कोई नही, अभिव्यक्ति की आजादी है। पीके जैसी फिल्म में इंसानों के कपड़े पहनने पर ही सवाल उठा दिया गया। फिल्म नाम से पाकिस्तानी साबित हो गयी थी। हम ओएमजी देखकर कौनसा परेश रावल की तरह समझदार आस्तिक हो गए? पीके देखकर भी कौन सा नास्तिक हो गए?

ऐसा क्या हो जायेगा केरला स्टोरी से? कश्मीर फाइल्स से कश्मीरी पंडितों को राहत मिल गयी? पद्मावत के बवाल से क्या राजपूतों की आबरू सँवर गयी?

हाँ हाँ, वोट बैंक पर भी आते हैं। मेरी जानकारी में एक भी ऐसा भाजपा वोटर नहीं है जिसने पीके फिल्म की तारीफ़ की हो या केरला स्टोरी की बुराई की हो। एक भी ऐसा गैर भाजपाई वोटर नहीं है जो इन फिल्मों को देख कर अपना वोट बदल देगा।

जो हुआ है वो बस इतना ही हुआ है कि जो कट्टर था वो और शिद्दत से कट्टरतम हो गया है रात्रि भोज तक के लिए या जब तक नशे का असर रहता होगा बस तब तक के लिए।

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