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जब मै शिक्षक था


क्षात्रों को अक्सर कहानियों से समझाता था। एक कहानी मैंने किसी क्लास में सुनाई थी। एक क्लास की कहानी। जिसमें सौ बच्चे पढ़ते हैं। वो सौ बच्चे पूरी दुनिया की जिग्यासाओं, अबुझेपन, होड़, पराक्रम, जिजीविषा, आश्चर्य और प्रतिस्पर्धा से लैस थे। बिल्कुल असली दुनिया के सात अरब इंसानों के भावों से लैस वो 100 बच्चों की क्लास।

एक दिन हेडमास्टर सुबह एसेंबली में घोषणा करते हैं कि स्कूल के छात्रों का प्रतिनिधि मंडल बनाया जायेगा। हर क्लास के हर सेक्शन से एक प्रतिनिधि चुना जायेगा और चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा स्कूल का छात्र प्रेसिडेंट चुना जायेगा।

लोकतंत्र की तालीम की मौलिक शिक्षा की वो कहानी जिसने उन्हे असीम शक्तियों की कुंजी सौंप दी। उस चुनाव के घोषणा सूची में कई नियम थे। मसलन, कितने भी छात्र नामांकन भर सकते हैं। सभी छात्रों को गुप्त मतदान का अधिकार होगा। मतगणना अमुख दिन सभी प्रतियोगयों के सामने होगी। और भी कई कई नियम। पूरी नियम पुस्तिका मानो ईश्वर द्वारा लिखी गयी विधाईका हो। एकदम नैतिक, संतुलित और प्रौढ़।

फिर हेडमास्टर, सभी मास्टरों की मीटिंग बुलाते हैं। बड़े नैतिक अंदाज में कहते हैं कि चुनाव बिल्कुल निष्पक्ष और पारदर्शी होने चाहिए। न्याय, नैतिकता, समरसता, सौहार्द की बहुत सारी बातें की। बाकि मास्टरों ने भी गजब भाषण दिये। फिर, मीटिंग खत्म होने के बाद, सीनियर एच ओ डी को बुलाया और कहा, स्कूल अध्यक्ष का पद जिसे मिलना चाहिए उसे ही मिले। समझ गए? कहकर चल दिये।

सीनियर साहब ने अपने गुर्गों के साथ तरकीब बनाई, कुछ के हाजरी काटेंगे, कुछ पे आरोप गढ़ेंगे, कुछ का पर्चा निरस्त होगा, और कुछ फसाद में फँसाये जायेंगे। फिर आखिरी में जो भी बचेंगे, उनमे से कोई भी जीत जाए, वो छात्र हुक्म हमारे ही मानेगा।

पूरी मुस्तैदी से बिसात बिछाई गयी। तय किया गया की किसे लड़ने देना है और किसे जीतने देना है। पोस्टर छपे, नारे लगे, जिसे जिताना तय हुआ था, वो जीत गया। उसकी जगह, लड़ सकने वालों में कोई भी जीत जाता तो भी जीत हेडमास्टर की ही होनी थी।

फिर चाहे आदिवासी द्रोपदी मुर्मू जीतें, या संघी यशवंत। राष्ट्रपति भवन मे भगवा ही लहरायेगा। नवउदित लोकतंत्र में आपका स्वागत है।

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