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जाती वर्ग और आज का संघर्ष

हिंदू कालेज के प्रोफेसर रतन लाल कहते हैं जातिवाद का अंत सिर्फ सवर्ण ही कर सकते हैं। पेरिस विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री प्रोफेसर डॉ. नितिन भारती एक वाजिब संदेह जताते हैं कि जातिवाद खत्म करने में सवर्णों को क्या फायेदा है? प्रसिद्ध लेखक चंदन पांडेय कहते हैं, रास्ता तो जातिवाद खत्म होने से ही निकलेगा। काँग्रेस नेता राजा पटेरिया कहते हैं, सिर्फ एक वर्ग के हितों की बात करते रहना सार्थक संवाद नहीं होता। वहीं बमसेफ् के वामन मेश्राम ने अपने जीवन का लक्ष्य ही दोनों वर्गों के बीच आग लगाना बना लिया है।

भारत में जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष की अलख महामना ज्योतिबा फुले ने जगाई थी, जिसको एक मुकाम तक बाबा साहेब अंबेडकर ने पहुँचाया। आजादी के बाद, लोहिया, कांशीराम समेत कई सार्थक प्रयास हुए लेकिन बेनतीजा रहे। आज जातिविभेद सिर्फ नफ़रत बोने और आग लगाकर तमाशा देखने का विषय बनकर रह गया है। नतीजा ये हुआ की वर्ग संघर्ष का विमर्श अब अपराधीयों के खौफ़ में बदलता जा रहा है।

बीते दिन हिंदू महासभा के गुर्गे जिस अपराध का आरोप मुसलमानों पर थोप रहे हैं, वो तसदीक में साबित हुआ की वो अपराध खुद उन्हीं गुर्गों ने किया है। अपने को द्विज समझने का अभिमान ओढ़ने वाले हमेशा से ही खुद अपराध कर दूसरों पर आरोप डालने जैसी कायरता को चाणक्य नीति बताते रहे हैं। ये वर्ग खुद को श्रेष्ठ जताते हुए भी साबित करने में जुटा रहता है कि जातिगत घृणा दरसल मुसलमानों ने फैलाई है और अंग्रेजों ने पोषी है। जबकि खुद को श्रेष्ठ मानना ही अन्य की अवमनना हो जाती है।

पटेरिया जी से मैं सहमत हूँ। समाज किसी भी एक कोण पे झुक कर विकसित नहीं हो सकता। लेकिन हर वर्ग खुद को शिकार और अन्य को शिकारी साबित करने की जिद से उबरना ही नहीं चाहता है। हमारी नजर सिर्फ हमारे नजरिये को स्पष्ट पढ़ने की ललक में टंगी रहती है। अन्य वर्गों की पीड़ा पर विमर्श हमारी विचार शक्ति से बाहर हो रहा है। संजय वर्मा जब विभाजन के दौर में सिंधी समुदाय की पीड़ा को लिखते हैं तब समझ आता है कि बँटवारे में पूरा सिंध गँवा देने का दर्द क्या रहा होगा। इस बारे में कितने विचार पढ़ने को मिलते हैं?

आज की स्वघोषित दलित कल्याण मंडलीयां महात्मा ज्योतिबा फुले के नाम पे कसीदे पढ़ते हैं। उनको समाजवादी फुले, सफल व्यापारी भी लगते हैं, राजनेता भी और संयासी भी। फुले के दादा को पेशवाओं ने सौ एकड़ जमीन दी थी। परिवारिक झगड़े में वो जमीन उनको नहीं मिली। गरीबी का आलम पसरा रहा। लेकिन शिक्षा प्राप्त करने में वो सफल हुए। थॉमस पैन की किताब मनुष्य का अधिकार पढ़कर ज्योतिबा को जाती आधारित दमन को समझने और उसके विरुद्ध संघर्ष करने का साहस मिला।

उन्होंने जब अपनी पत्नी सावित्री और बहन शगुन को शिक्षित करना चाहा तो द्विज समाज ने उन्हें बहिस्कृत करना शुरू किया था। फिर जब दोनों ने मिलकर बेटियों के लिए भारतीय इतिहास में पहली बार स्कूल खोला तो इन दोनों को समाज से निकाल दिया गया। तब, उसमान और फातिमा शेख ने इन्हें रहने के लिए छत दी थी। यह भी समझिये की स्कूल के लिए जमीन तात्या साहेब भिड़े ने दी थी। जात और धर्म के आधार पर दुनिया को समझने वाला वर्ग थॉमस, भिड़े, शेख और फुले के इस संयुक्त प्रयास को किस खाने में रखेगा?

महात्मा फुले जब अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहे थे तब उनकी दोस्ती एक ब्राह्मण वर्ग के सहपाठी से हुई। उसी मित्र की शादी में जब वो गए तो वहाँ श्रेष्ठवादी वर्ग ने उनको बेइज्जत कर के भगा दिया। ऐसा दुर्व्यवहार मैंने भी झेला है। मेरे मित्र कभी जातिवादी नहीं रहे पर कई बार उनके परिवार के लोगों ने दुर्व्यवहार किये हैं। ऐसे में, मित्र की मित्रता को भुलाकर समाज की व्याख्या करना कितना उचित है? मेरे एक मित्र, लकुलिश शर्मा बताते हैं की सेकुलर हो जाना ब्राह्मणों के लिए अपने घर परिवार में ही शूद्र हो जाने बराबर है। एक छात्रा, (नाम लेना उचित नहीं है) ने ये बताया की आज के परिवेश में ब्राह्मण परिवार में मेरे लिए समतावादी जीवन साथी तलाश कर पाना असंभव लग रहा है। जिससे विचार ही न मिले उससे प्रेम कैसे होगा? ये कैसी आजादी है की माँ बाप अपनी मर्जी से शादी की आजादी तो दे रहे हैं लेकिन मेरे विचार मूलक साथी की तलाश को बेकार की जिद साबित करने में जुटे हैं।

एक बेहद गरीब दलित मित्र के बेटे जब इंजिन्यरिंग् कालेज पहुँचे और उनको मेरे एक लेक्चर में बैठने का मौका मिला तो बेहद उत्साहित हुए, उस लेक्चर में मैंने शबरी, लक्ष्मण और राम के भक्ति, ज्ञान और प्रेम के द्वंद का जिक्र किया तो वो बच्चा मुझसे नाराज़ हो गया। उसके मुताबिक मैंने बेवजह अंजाने में ही हिंदुत्व की पैरवी कर दी।

अंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई, ये उतना ही वाजिब है जितना भगत सिंह का अंग्रेजी सदन में बम फोड़ना। यदि बहरों को धमाके की जरूरत होती है तो अंधों के लिए आग लगाना पड़ता है। लेकिन आज भी यदि हम अदालतों में बम फोड़ते रहें तो क्या जायज होगा?

आज कमला हैरिस, सत्या नाडेल्ला, सुंदर पिचाई भले ही सफलतम मुकाम पर हों, अमेरिका में श्वेत श्रेष्ठता की भावना के शिकार रहे हैं। जबकि ये सभी भारत के ब्राह्मण परिवार से संबंध रखते हैं। कल को यदि एलन मस्क, या जेफ बेजोस जैसे व्यापारी यदि मंगल गृह या चाँद पर मानव सभ्यता को पहुँचाने में सफल हो जाते हैं, तो कौन लोग वहाँ पहुँच पायेंगे? क्या जातिवादी वरीयता होगी? या क्या भारतीय किसी वरीयता में होंगे?

हमारे समाज में सामाजिक समरसता की व्यापक संभावनाएं हैं। एक दूसरे से संघर्ष करने के बजाए एक साथ मिलकर हर वर्ग में मौजूद उन अपराधियों के विरुद्ध संघर्ष करें जो हमारी बंधुता को अप्राकृतिक साबित करने पर तुले हुए हैं।

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