प्रायोजित अधिकारी के सवालों में हजार जवाब मौजूद थे। राजकुमारों को क्यों ऐसा यकीन होता है कि दुनिया भर में उसके मुरीद पिट्टु ही उसकी सभा में पहुचेंगे। जिस चाणक्य का उदाहरण प्रायोजित अधिकारी दे रहे थे, उसी चाणक्य ने एक अतिवादी शासक की नाक में नकेल बांध कर सत्ता से उतार दिया था। राज्य और राष्ट्र में भेद के उद्धरण संविधान में भी लिखे हैं। निश्चित ही राष्टृवाद एक विदेशी संकल्पना है लेकिन राजा के लिए युद्ध लड़ने वाले सैनिक भारतीय इतिहास में भी रहे हैं। सिर्फ रोटी के लिए ही सैनिक बंदूक नहीं चलाता। राज्य वास्तविक है, राष्ट्र उसकी भावात्मक संज्ञा है। किसी भी सामाजिक भावना को नकारा नहीं जा सकता है। यदि जनता किसी राष्ट्र, धर्म, रिवाज़ को मानती है तो नेता को उस मान्यता का संज्ञान लेना ही होगा। बौद्धिक विमर्श के लिए राज्य की उपमा सही है लेकिन इतने विशाल देश को किसी सांस्कृतिक रिवाजों से लैस भावनाओं के बिना नहीं चलाया जा सकता। यदि राजनीतिक नेतृत्व की हसरत है तो नागरिकों की भावनाओं का सम्मान करना सीखिये। यदि सिर्फ सैधांतिक विचारोयुक्त भाषण ही देना है तो दुनिया की कोई भी यूनिवर्सिटी आपको गिरवी रख लेगी। भारत मौलिक रूप से जन मानस की सवेदनाओं से ही संचालित रहा है। हर युग में भारत के शासकों ने इस संवेदना का अनुसरण किया है। अशोक से लेकर अंग्रेज तक, भारत कभी संवेदना शून्य नहीं रहा।
आज भारत में लोकतंत्र के बावजूद यदि एक अतिवादी एवं क्रूर सत्ता स्थापित है तो इसकी एक प्रमुख वजह युवराजों का चेतना शून्य हो जाना है। बहुत अफसोस।। मेटरंनिख और हिलेटरों जैसे क्रूर शासक से लड़ने के लिए हमें लुईस 18वें जैसे संवेदनहीन अर्धराजकुमारों का सहारा लेना पड़ रहा है।