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वर्तमान अतिवादी सरकार से चिंतित होने की जरूरत नहीं है।

भारत देश की सरकार सामूहिक अविश्वास (collective mistrust) पर चल रही है। संघ और भारतीय व्यापारी घरानों में अलिखित समझौता हुआ है। व्यापारियों के दौलत की मदद से संसद पर कब्जा होगा और फिर व्यापारियों को मनमानी करने का अधिकार संसद से पारित होगा। ये करार किसी भी दल के साथ हो सकता है। कांग्रेस के साथ भी हो सकता था। लेकिन संघ को ही इसलिए चुना गया क्योंकि संघ भारतीय कॉर्पोरेट की तरह अनुशासित है। जैसे व्यापारियों कोनप मुनाफा चाहिए, वैसे संघ को हिंदू राष्ट्र। दोनो का धेय स्पष्ट है। लेकिन मुनाफा जितना सटीक रूप से परिभाषित है, हिंदू राष्ट्र उतना ही पेंचीदा धेय है। इसकी परिभाषा न तो संघ को स्पष्ट है और न ही वो अपनी मशीनरी को इसके लिए दक्ष कर सकता है। मुनाफा कमाने के टेंप्लेटस की भरमार है, धार्मिक राष्ट्रवाद के मुट्ठीभर टेंपलैटस भी यदि हैं तो बड़े बेहूदगी से बने हुए हैं। इसराइल आर्थिक और सामरिक आधार पर धार्मिक राष्ट्रवाद का एक सफल परीक्षण माना जा सकता है लेकिन वो भी बारूद के ढेर मैं बैठा माचिस से खेलने वाला सनकी देश ही है।

भारतीय जन मानस न तो मुनाफे के लिए और न ही धार्मिक राष्ट्रवाद के लिए आवेशित होता है। यहाँ लोकतंत्र को ठूँसने में ही लगभग सभी राजनीतिक दलों को भारी मशक्कत करनी पड़ी है। ऐसे में इस नई व्यवस्था को कोई एक राजनीतिक दल कैसे स्थापित कर पायेगा? विशेष कर वो राजनीतिक दल जिसे अपने एजेंडे लागू करने के लिए झूठ का सहारा लेना पड़ता हो। जब भी सत्ता झूठ बोलती है, वो समझती है की जनता उसके मंसूबों से सहमत नहीं है।

वैसे भी भरितीय व्यापार जगत और राजनीति में तुलनात्मक रूप से व्यापार अधिक सफल है इसलिए जैसे-जैसे संघ के अतिवादी इरादों की कलई खुलती जायेगी, अति विश्सिष्ठ व्यापारी वर्ग अपना पिट्ठू बदलते जायेंगे। इसराइल तभी तक सफल प्रतीत होगा जबतक अमेरिका का विश्व राजनीति में दखल बरकरार है। चीन और रूस के मजबूत होते ही, दुनिया का एक मात्र धार्मिक राष्ट्रवाद वाला देश जो की मौलिक रूप से अप्राकृतिक है, प्रकृति की भेंट चढ़ जायेगा। यदि फिलिस्तीन जैसे प्राकृतिक राज्य को खत्म कर पाना इतना आसान होता तो अमरीकी साय में पलने वाला इसरियल अभी तक फिलिस्तीन को खत्म कर चुका होता। इससे साबित होता है कि नये पनपने वाले अप्राकृतिक धार्मिक राष्ट्रवाद के मंसूबे बिना अंकुरित हुए ही मुरझा जायेंगे।


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