
बिकने वाली हर चीज़ का पैमाना होता है। अभी तक दुनिया में भावनाओं का बाजार नहीं था। क्या पसंद नापसंद मापने का सांखिकीय पैमाना हो सकता है? पहले नहीं था, अब है। सोशल मीडिया में लाइक्स और डिसलाइक्स की संख्या से अंदाजा लग जाता है, कौन क्या पसंद करता है या कितना पसंद करता है। इस आधार पर ही आज मनोरंजन परोसा जा रहा है। नेटफ्लिक्स जैसे ओटीटी ऐप जो मनोरंजन परोस रहे हैं वो सब हमारे फेसबुक, पेटीएम, गूगल सर्च से बने मेटा एनालिटिक्स के आधार पर बनते हैं। डेटा एनालिटिक्स हमारे जैसे लोगों के लिए सांचे गढ़ता है। हमारी ऑनलाइन हरकतें इन सांचों को पुख्ता करते हैं। एक हद तक हम मशीनों को सिखाते हैं, फिर ये मशीनें हमें अपने सांचों में गूथने लगती हैं। धीर–धीरे हमारे हर फैसले इन मशीनों के इशारों में होने लगते हैं। हम क्या खायेंगे, कब खायेंगे, कपड़े क्या पहनेंगे, किसे वोट देंगे। वस्तुतः कोई इंसान यदि स्मार्टफोन का उपयोग करता है तो उसके फैसले महज उसके नहीं रहते, वो हर उस खयाल से प्रेरित होता है जो मेटा डेटा ने उसको परोसा है। यानी जो संस्था भी इस मेटा डाटा को कंट्रोल करती है, वो संस्था हमारे और आपके विचारों और फैसलों को भी कंट्रोल करती है। ऐसी संस्थाएं सिर्फ मुनाफे के लिए काम नहीं करती। इन संस्थाओं के मालिक उन समूहों का हिस्सा होते हैं जो शक्ति संतुलन बनाए रखने या उसे अपने पक्ष में करने की लड़ाई लड़ रहे होते हैं।
ये वो शक्तियां हैं जिन्होंने ने दुनिया में राज करने का मूल मंत्र सदियों से सीख रखा है। पीढ़ी दर पीढ़ी ये लोग उस मंत्र का नई नई परिस्थितियों में उपयोग करते रहते हैं। लोक चेतना में अपने विचारों को स्थापित करना और लोगों को इस विचार के प्रति दीवाना बना देना। ये वो मूल मंत्र है जिससे खरबों लोगों पर चंद शक्तिशाली लोग राज करते हैं। अब इन लोगों के पास डेटा और मशीन जैसे हथियार आ गए हैं जिसकी मदद से अब ये एक एक व्यक्ति के दिमाग को सीधे नियंत्रण में ले रहे हैं।