तथ्य को सार्वजनिक करने का विरोध करना संकुचित विचार है। हालाकि इतने विशाल, विविध देश में एकमत होना की संभव नहीं है लेकिन असहमतियां किसी पक्ष को गलत साबित नहीं करती। ये तंज की जातिवाद खत्म करने की गुहार लगाने वाले ही जाति प्रमाण पत्र चाहते हैं। ये तर्क की जातिगत जनगणना से जातिवाद और बढ़ेगा; बिलकुल वैसा ही है, जैसे ये सोचना की खून की जांच करने से मधुमेह बढ़ जाता है।
बिना जांच किए मान लेना की कोई बीमारी नहीं है और लगातार पीड़ा सहते रहना समझदारी नहीं है। जातिगत जनगणना अंक दर अंक ये बयान करेगी की कि भारत में जातिवादी छल, हिंसा, कपट और लालच कितनी परत गहराई तक व्याप्त है। और अगर ऐसा नहीं है, अगर जातिवाद क्षीण हो रहा है तो हर दस वर्ष में होने वाले इस सर्वेक्षण में प्रमाणित रूप से अपने नोवोदित समता मूलक समाज की व्याख्या करेंगे। यानी, जातिगत जनगणना से प्राप्त तथ्य दोनों पक्षों के बहस को सार्थक दिशा देंगे।
यानी, यदि जनगणना में जातिवाद के सबूत नहीं मिलते हैं तो भारत का रुतबा विश्व में एक सर्वगीर्ण लोकतंत्र के रूप में स्थापित होगा। और अगर जातिवादी महामारी के रेशे अब भी हमारी वलगांओ में पनप रहें हैं तो हम सचेत होंगे। इसके अधिक फैलने के प्रमाण मिले तो इसे आपदा घोषित कर इसके लिए युद्धस्तर पर कार्य किए जाने को बल मिलेगा। दोनो ही स्थिति में जातिगत जनगणना विशाल भारत देश और इसके नागरिकों के लिए वरदान ही साबित होगी। कौन चाहेगा की भारतीय जनमानस में जातिवाद हावी रहे?
तो फिर सरकार और सत्तापक्ष जातिगत जनगणना के खिलाफ क्यों है? दुनिया भर में गरीबों और पिछड़ों का हितैषी बनने वाली सरकार, रेत में सर घुसाए बिना हकीकत की तहकीकात किए किस लक्ष्य को साध रही है? मनसा वाचा कर्मणा के आधार पर सत्य खोजने वाली संस्कृति क्या बे मन से जाती उन्मूलन चाहती है? क्या कर्म के बिना बस वचन और शोर से समावेशी समाज का उदय होगा? या सत्ताधीशों ने जम्हूरियत को जमुरा बनाए रखने का हुनर सीख लिया है?
कमज़ोर वर्ग की हजार कमजोरियों से भी सबसे बड़ी कमजोरी ये है कि उसमे एकता नहीं होती। और उस वर्ग में जागृत हुए मुट्ठी भर लोग जब अपने हक की मांग करते हैं तो उसके अपने ही लोग मू बाएं खड़े रहते हैं। अल्पमत के मारे ये मुट्ठीभर लोगों का सत्ता पक्ष बेहद मज़ाक उड़ाता है। इसमें सत्ता के स्तंभ जैसे पत्रकारिता इस दंभ में उनका साथ देती है, यही सत्ता का हथकंडा है। इसी अट्टहास के शोर में ये मुट्ठीभर लोग घबरा जाते हैं।
जातिगत जनगणना की मांग करने पर तंज कसना ये स्पष्ट करता है की सत्तासीन समाज इस संदर्भ में सार्थक बहस के लिए भी तैयार नहीं है। आज भारत की समूल सामाजिक चेतना इस लिए भी मर गई है क्यों कि यहां बहस को भी अपराध घोषित किया जा चुका है। वर्ना जिस समाज में बाबा साहेब आंबेडकर ने वंचितों के लिए आरक्षण का संवैधानिक अधिकार प्राप्त कर लिया उस समाज में आज के वंचित समाज के नेता जातिगत जनगणना क्यों नहीं करा पा रहे हैं?
जातिवादी भेदभाव का दंश ये है, कि इस व्यवस्था में जो जितना नीचे है वो उतना अधिक अपने नीचे वाले वर्ग से नफरत करता है। इस जातिवाद में आपसी घृणा में भी प्रतिस्पर्धा होती है। इसलिए शोषित वर्ग की चेतना में एकता का भाव न्यूनतम होता जाता है। इस तरह ये खंडित समाज विखंडित व्यवस्था के मरुस्थली दलदल में धंसता जाता है। इस आंशिक और अल्प से अल्प उपसमूह में बंटे शोषित समाज के मुट्ठीभर लोगों को जब आरक्षण मिला तो वो भी वर्गीकृत घृणा के रंग में रंग गए। आरक्षण से मिले अवसर ने उन्हें और अंधा बना दिया। संगठित समाज के लंबे संघर्ष की वजह से मिले आरक्षण को वो अपनी निजी काबिलियत से प्राप्त अवसर समझ कर दुरुपयोग करने लगे। बाबा साहेब ने आगे बढ़ने का वचन मांगा था, ये उठकर चले तो मगर उठते ही पीछे मुढ गए। हर तरह से कमाई गई दौलत जिसमे काला और सफेद दोनों शामिल है, ने हमारे सामाजिक संघर्ष को इनके व्यक्तिगत घमंड में डूबो दिया। इस दौलत में पली पनपी नई कौम, यानी युवा बहुजन की संभावित समर्थ कौम अपने आप को समता मूलक समाज के संघर्ष का हिस्सा मानने से इंकार कर दिया। ये युवा कौम अपने आपको फिल्मी हीरो समझने लगी। इसे लगने लगा की इनकी महंगी जींस, महंगे मोबाइल, गाड़ी आदि इनके बाप ने अकेले दम पर कमाई है। इसको भान भी नहीं है की यदि बाबा साहेब ने ये अवसर नहीं दिया होता तो आज किसी सवर्ण के तबेले में गोबर ढोने की भी औकात नहीं रहती। या शायद पैदा होते ही मर गए होते।
आज इन अध पढ़े अल्प बुद्धि युवाओं को शहरी भारत में अमेरिका दिखता है। और जब ये कभी कभार अपने पुरखों के गांव जाते हैं तो किसी पर्यटक की तरह अपने ही कुपोषित भाइयों और बहनों की फोटो खींच कर दुनिया को दिखाते हैं कि देखो भ्रष्टाचार ने मेरे देश का क्या हाल कर दिया है।
जिंदा रहने की होड़ में एक दूसरे से आगे बने रहने की खीज न्याय संगत भावनाओं को दफना देती हैं। अवसरों के अभाव में ये प्रतिपर्धा कब भ्रष्टाचार में तब्दील हो जाती है, समाज को इसका भान भी नहीं होता। इस आपा धापी में जो लोग हमसे अवसर छीन रहे हैं वो लोग ही हमें पश्चिमी देशों की फोटो दिखा के कहते हैं कि देखो वहां के लोग भ्रष्ट नहीं है इसलिए वो लोग तरक्की कर रहे हैं।जबकि हकीकत ये है की जब वहां भी गैरबराबरी थी तो वहां हमसे कहीं अधिक भ्रष्टाचार था। शोषित समाज को निम्नतर बनाए रखने की साजिश को भ्रष्टाचार का मुखौटा लगाकर सत्ता अपने कृत्य को अपराध साबित होने से रोक लेती है। जबकि अनेकों बार ये साबित हुआ है कि सभ्य से सभ्य समाज में भी जब आपदा आती है तो वो भ्रष्ट और निर्दई हो जाता है। लगातार पीढि़यों से आपदा में जी रहे लोगों को भ्रष्टाचार की दुहाई देना उनसे छल करने के समान है। जबकि सत्ताधारी समाज को ये बेहतर पता है की अवसरों को विकसित करने मात्र से समाज से आरक्षण और भ्रष्टाचार बिलकुल वैसे ही समाप्त हो जायेंगे जैसे मोबाइल के जमाने में पोस्टकार्ड और टेलीग्राम समाप्त हो गए।
क्या सत्ताधारी लोग इस ज्ञान से अनभिज्ञ हैं? बिलकुल नहीं। यदि समाज जागृत हो जायेगा तो भेड़ियों को सत्ता नसीब नहीं होगी। इसलिए भेड़िए चाहते हैं कि शोषित समाज अनपढ़ और भूखा आपस में लड़ता रहे। ये तभी तक संभव है जब तक उस समाज में फूट डाल पाना आसान है। सत्ता ज़रा सी चूकी कि शोषित समाज एक हो जायेगा। जातिगत जनगणना को हर संभव हाशिए में रखना सत्ता की मजबूरी है, क्यों कि अगर ये उजागर हो गया की गैरबराबरी चरम पर है तो शोषित वर्ग अगाह हो जायेगा और अपने अधिकार के लिए एकजुट हो जायेगा। मान्यवर कांशीराम जी ने ये कहा था, की गुलामों को बस ये एहसास करा दो की वो गुलाम हैं, वो अपनी जंजीरें खुद तोड़ लेंगे। जातिगत जनगणना ही हमे ये एहसास करा सकती है कि हम आज भी गुलाम हैं।