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J Rajaram

दो टूक

थोड़े दीवाने तो हैं मगर खुली किताब नहीं है,
जुबाँ में जवाब है, हम हाज़िर जवाब नहीं हैं। मैं ऐसा शायराना कभी नहीं था, हाँ लिखता था बस यूँ ही… कभी किसी कापी के पीछे के पन्नों में या कोई मेल-बॉक्स में ड्राफ्ट बना के छोड़ दिया बस। किसी को कभी सुनाया नहीं, वैसे भी दोस्त अक्सर मेरा मजाक बनाये रहते हैं ऐसे ऊल-जलूल अध गुथे शब्द देखेंगे तो टांग खिंचाई दरार पैदा कर देगी। और वैसे भी जब से फेसबुक आया है, हर कोई लिखता ही रहता है। कई बड़े लाजवाब लिखते है, उनके आगे तो मैं जग हंसाई ही समेट पाऊँगा बस। और फिर दुनिया को अब और साहित्य की ज़रूरत नहीं है, खास तौर से प्रेम विषय पर।

दो टूक
"मैं ऐसा शायराना कभी नहीं था, हाँ लिखता था बस यूँ ही… कभी किसी कापी के पीछे के पन्नों में या कोई मेल-बॉक्स में ड्राफ्ट बना के छोड़ दिया बस। किसी को कभी सुनाया नहीं, वैसे भी दोस्त अक्सर मेरा मजाक बनाये रहते हैं ऐसे ऊल-जलूल अध गुथे शब्द देखेंगे तो टांग खिंचाई दरार पैदा कर देगी। और वैसे भी जब से फेसबुक आया है, हर कोई लिखता ही रहता है। कई बड़े लाजवाब लिखते है, उनके आगे तो मैं जग हंसाई ही समेट पाऊँगा बस। और फिर दुनिया को अब और साहित्य की ज़रूरत नहीं है, खास तौर से प्रेम विषय पर।
“प्रेम पर लिखे साहित्यों ने गजब ढा दिया है। जाने कैसे लिखतें होंगे वो अल्फ़ाज़-ए -हुनर... मानो सुबह की ओस को गजरे में पिरो कर जान-ए-मन की ज़ुल्फ़ों में लपेट दिया हो। कुछ ऐसे की सुंदरता की उस कसौटी को कभी न छू पाने की टीस भी मेरे अंदर के कवि को दुलत्ती मार दे। क्या पता ये रुबाई, ये गजल.… शायद प्रेम बस साहित्य में ही मिलता है। वरना देखा तो नहीं इतना सुन्दर कोई कभी।”
उसकी गोद में लेटा उसके दुशाले से, उसके मखमली गाल को सहलाते हुए उसी के सवाल का जवाब दे रहा था। अपनी तारीफ में अतिशय अलंकार की शंका लिए उसने हौले से धकेलते हुए कहा 
"हट! झूठे!!" 
उसका दुशाला मेरे चेहरे पे आ गिरा और मैं यूँ ही अनरगल सा उसको इम्प्रेस करने के लिए बोल उठा 
इश्क़ को जी भर जीने की मोहलत न मिली
और हुस्न को अपने होने पे गुमान आ गया।

जैसे गुस्ताखी मैं मैंने उनके मन को छू लिया हो, वो आँखें बंद कर के धीरे से बोली “हम्म्म, चलो तो! तुम भी!"    
बरसों से अवसाद में डूबा मेरा मन अटूट खुशियों से भरे इन पलों में भी करवट बदल लेता है। जैसे हर बात उल्टी कही गयी हो। मसलन "तुम भी" जैसे रस भरे शब्द का भी कोई दर्दनाक विलोम होगा? पता नहीं पर दो टूक ऐसे जवाबों से मैं आज भी भटक जाता हूँ।
एक दशक पहले, जब ये और मैं एक ही स्कूल में पढ़ते थे। सवेरे की प्रार्थना में, ये अक्सर मंच की खास पंक्तियों में रहा करती थी। रेशमी जुल्फें कस के गुथे होते थे, सर्दी में उनके लिबास के ऊपर लाल स्वेटर, मेरे एहसास को रोम-रोम तक गर्म कर देता था। लेकिन आठवीं क्लास में भला कोई किसी लड़की से बात तो कर ले, पूरे स्कूल में हंगामा हो जाये। ऊपर से मैं? मैथ्स में अक्सर बेंच के ऊपर खड़े हुए लोगों में मेरी जगह पक्की थी। इंग्लिश वाली मैडम ने मेरी बेइज़्ज़ती का वारंट ही निकाल रखा था। ऊपर से पापा का खौफ, २० मार्क्स के टेस्ट में १५ आ जाएँ तो धुलाई हो जाती थी। किसी लड़की वाला चक्कर उनको पता चला न तो दफन हुए समझो। और दोस्त! वो तो यही कहेंगे की औक़ात में रह। इसलिए सारी मोहब्बत मैंने ख्यालों में ही भिगो रखी थी। या कोई नगमा पिरो लिया कभी बस। 

जो आओ अगली बार मेरे ख़्वाब गाह में
जरा मेरे अरमानों के सफ्फे पलट लेना। 
हर गजल तेरे नूर की इज़ाफ़त होगी, 
हर नगमा तुझे पाने की इबादत होगी॥

उसकी मासूम ख़ूबसूरती पूरे शहर में मशहूर थी। हर कोई उसका नाम जान लेने की मियाद भरता था। एक रोज ट्रुथ एंड डेयर के एक खेल में दोस्तों ने मेरा ये राज़ जान लिया। बड़ी फजीहत हुई, मेरी औक़ात पे ताने कसे गए, उसकी जवानी के कसीदे पढ़े गए। क्लास में रहना मुहाल हो गया। उसको मेरे नाम से चिढ़ाया जाने लगा और मेरे सामने कुछ एथलेटिक चैंपियंस क्लासमेट उसके बारे में फूहड़ बातें भी करने लगे। मेरे डरे हुए, शर्माए हुए और गुस्से से भरे चेहरे पर उनकी सांस फटने तक वाली हंसी मुझे मार डालती थी। मैंने स्कूल जाना बंद कर दिया था, घर से निकलता पर कहीं और ही जाता था। हाँ, लेकिन उसके बस स्टॉप से होते हुए, उसको देख लेना बस ही मेरी तसल्ली थी। जो मेरी औक़ात बराबर लगती थी मुझको। एक दिन पापा ने घर पहुँचते ही पिटाई कर दी तब पता चला की स्कूल वाले घरवालों से संपर्क में रहते है। अगले दिन स्कूल जाना मजबूरी हो गयी, लेकिन ये क्या दोस्त बदल से गए थे। ताने और मजाक गायब.... ये गजब था। पढ़ाई होने लगी एक दिन एक दोस्त ने नसीहत दी कि मेरी वाली के पापा सरकारी अफसर है। कब ट्रांसफर हो जाये, कोई भरोसा नहीं इस लिए इजहार तो कर ही देना चाहिए। ख्याल गजब था लेकिन वो.… औक़ात? 
"अच्छा लेटर लिख दे।” उसने मेरे डर को ढाक दिया 

खूब रोयी थी ये उस दिन। जिस दिन लेटर इनको स्कूल के पते पर मिला था।चेहरा सुर्ख लाल, बेहोश हो गयी थी। होश तो मुझे भी नहीं था, टीचर्स ने इतने थप्पड़ मारे थे। जिसकी भी क्लास थी, सबने बारी-बारी से आठ दस रसीद किये। हिंदी की मैडम ने कुछ नया कर दिया, उन्होंने माफ़ी मांगने का फरमान जारी कर दिया.... डाँट के कहा "चलो!" 
ये तब भी बस रोये जा रही थी.… खुद पर इतना गुस्सा आ रहा था कि जाने क्या बस माफ़ी ही एक निकट सुलह लगी, सो पास आया और झेंपते हुए कह गया 'स स सॉरी!" 
बड़ी देर बाद उसने मेरी तरफ देखा और फफकते हुए कहा था "तुम भी?" 
ये "तुम भी" शब्द उस वक्त बड़ा दर्दनाक था। तब इसका उल्टा मैं नहीं सोच पाया था। दो टूक तो नहीं था, लेकिन इन शब्दों में सार था बहुत। 
आज उनकी गोद में लेटा हूँ, ये दो टूक सा "तुम भी" अभी भी चुभ रहा है। एक दशक में मैं कोई दूसरा हो गया हूँ, अब कविताएँ नहीं लिखता। अब सामाजिक आंदोलन, राजनीति, गाँव-गाँव भटकना, हलफनामे, दलीलें ये सब मेरा आज बन चुके हैं। वो तो प्यार वापस आ गया, मैंने तो सब उम्मीदें उसी दिन खो दी थी इनके "तुम भी?" वाले रुआंसे सवाल के बाद। फेसबुक ने फिर से जलजला ला दिया। ऊपर से हाय रे किस्मत हम सालों से इसी एक ही शहर में थे। कभी मिले भी नहीं कहीं टकराए भी नहीं बस इस फेसबुक ने.… 
आज ये मेरी दीवानी हैं, मेरी कविताएँ इनको अपनी तस्वीर लगती हैं। एक दिन न मिलो तो खाना-पीना सब बंद। और मिलो तो बस या ये हमारी गोद में या हम इनकी। कसम से इतना तो ग़ालिब ने भी नहीं पढ़ी होंगी अपनी लिखी… बस सुनते रहेंगी। हमारा भी अंदाज रवाँ हो जाता है.… आशिक मिजाजी भी हद्द है। ये बड़ी नौकरी करती हैं, बड़ा घर खरीद लिया है शहर में, एक कार भी क़िस्त है।
मैं एक मामूली टीचर हूँ, कालेज में पढ़ाता तो क्या ही हूँ। जैसे तैसे नौकरी चल रही है। वैसे तो वकालत भी करता हूँ, गरीबों के लिए.… जो गुज़र बसर से बचता है, वह किसी की किताब राशन में लग जाता है। किताबें ख़रीदना ही मेरी कमाई का योग्य व्यय है। बाकी छोटे भाई ने एक मकान खरीद रखा है।यहाँ उसी के एक कमरे को गरीब खाना बना लिया है। उसमे भी जाने कितने लोग आते जाते रहते है।  
धीरे-धीरे हमारा प्यार दुनिया की गिरफ़्त में कसने लगा.… शादी का ख्याल भी भुला चुका आज राजी सा हो जाता हूँ। 
"घर पे क्या बोलोगे?" उनका ये सवाल और मेरे शायराना जवाब अब उतने रंगीन न रहे थे। 
"कह देंगे हम भी शहजादे हैं" फिर टाल गया, उनकी ओर झुक के चूमने के लिए.… 
"हटो न! तुम भी!!  
उसने शादी के बहुत से सपने देख रखे हैं। हनीमून के भी, लहंगा ही लाखों में हैं.… "तुम भी!" काश ये शब्द तब से ही हमारी जिंदगी में न होता!! काश मैं भी रोज़ी-रोटी में ही रमा रहता, आज किसी मुकाम पे होता। उनके लायक़… ना वो ही हुआ, न इस दो टूक शब्द का उल्टा ही पता चला। तब ही पता चल जाता तो शायद तब से सिर्फ़ एक ही लक्ष्य होता, इज्जतदार नौकरी, और इनसे साथ का पूरा जीवन।
शहर से दूर एक गाँव में नदी पर बाँध बनाने के खिलाफ संघर्ष जोर पकड़ रहा था, मेरा वहां जाना ज़रूरी था। ये वहां मुझसे मिलने आ जाती थी, रोज। कभी चाऊमीन, कभी फ्राइड राइस ले कर। मेरे साथी हमारी दीवानगी पर फ़िदा हो जाते लेकिन उनकी हड़ताल और मेरी कागज पत्री के बीच इनका प्रेम-मिलाप एक अनकहे दर्द तो उकेर देता था।  
"न आया करो!" उनके हाथों से पराठे खा रहा था, उनकी कार में बैठ कर। 
"क्यों?" जिस हक़ से आज पूछा है, काश!!! 
"यूँ ही!" मैंने टाल दिया 
"तुम भी न!" उन्होंने एक और निवाला रख दिया मुँह पे, 
ये दौर चलता रहा, मेरी डाक्टरी की डिग्री भी पूरी हो गयी, उनके जिद पर एक कविता संग्रह भी प्रकाशित हो गयी, लेकिन संघर्ष जारी है। न्याय और बराबरी की लड़ाई में ज़रूरी सिपाही बन चुका हूँ। ये भी कि उनके परिवार के मुताबिक मैं कोई आवारा हूँ? 
इस छोटे जीवन काल में,  
इस काल के कपाल में,
क्या दांव चलूँ?
क्या वार करूँ? 
दूर क्षितिज उस पूरब में,
ये सवाल उगा इस जीवन में, 
इस ठौर रुकूँ?
या उस पार चलूँ?
आज फैसले की घड़ी आ पहुंची है। शायद मौन फैसले हो चुके हैं। जीवन के अल्प से भी अल्प सारांश में भी शायद कुछ घड़ियों को कभी टाला नहीं जा सकता। आज उस मौन फैसले को अलफ़ाज़ देना था!!! आज उस विलोम की बेहद तलाश है।
आज भी वो गजब कोहिनूर लग रही है, बस मौन है। मैं ने रणभेरी के बुलावे से पहले का आलिंगन उसके कंधों में पसार दिया। 
आज रोने की बारी मेरी थी। सिसकती उसी की एक दशक पुरानी आवाज की तरह मैं ने उसके कानों में कहा “आठवीं में ही उस रोती हुई लड़की के दुःख के आगे सभी हसरतों को ज़हर दे दिया था। उस रोते हुए चेहरे को कभी नहीं भूल सकता। आज फिर उस चेहरे में वही मायूसी है।”
उसके वो दो शब्द, तुम भी! वो स्वेटर! गुथी हुई चोटी! जाने क्या भाव था उस सवाल में “तुम भी?” क्या मायने थे? आज वैसा कुछ भी नहीं है। आज जाते वक्त क्या बोलेगी?
वो सिसकते हुए लिपट गयी.… बहुत देर तक रोती रही, फिर सख्ती से कुछ पीछे हटी और जाने से पहले, पहली बार उसने अपनी युक्ति बदल ली। जाते-जाते वो बरसो पुराना सवाल ले गयी, वो विलोम!!
चलते हुए पलट कर बस इतना ही कहा “मैं भी"
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