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J Rajaram

बूढ़ी बस्ती

चलते चले आए कई मील उन गलियों से
दरक गए होंगे, वो बस्ती, घर, चौराहे सिगड़ी लहक चुकी थी और शायद ठण्ड भी बढ़ गयी थी। शरीर आगे से तो गर्म था, मगर पीठ ठिठुरी जा रही थी। ऐसे मे विज्ञान का पाठ याद कर के पापा जी को सुनाना भला किसी फांसी की सजा से कम क्या होगा। भोर उठ आई थी मगर कोहरे ने धूप को रोक रखा था। भीनी सी ओस ने आसमान को बर्फ़ की पहाड़ी जैसा श्वेत कर दिया था। लिप्टिस के पेड़ हलकी हवा में झूम रहे थे, विज्ञान की किताब के अलावा सब कुछ हसीन लग रहा था। तभी भीतर से कुछ आहट आई, शायद पापा उठ गए हैं।

बूढ़ी बस्ती
“सिगड़ी लहक चुकी थी और शायद ठण्ड भी बढ़ गयी थी। शरीर आगे से तो गर्म था, मगर पीठ ठिठुरी जा रही थी। ऐसे मे विज्ञान का पाठ याद कर के पापा जी को सुनाना भला किसी फांसी की सजा से कम क्या होगा। भोर उठ आई थी मगर कोहरे ने धूप को रोक रखा था। भीनी सी ओस ने आसमान को बर्फ़ की पहाड़ी जैसा श्वेत कर दिया था। लिप्टिस के पेड़ हलकी हवा में झूम रहे थे, विज्ञान की किताब के अलावा सब कुछ हसीन लग रहा था। तभी भीतर से कुछ आहट आई, शायद पापा उठ गए हैं।
आज भी पापा के गुस्से को याद कर के बिजली कौंध जाती है। बहरहाल, जाने क्यों आज २० साल बाद उनका ये तल्ख़ अंदाज हू ब हू याद आ गया। ट्रेन की खिड़की से बाहर दूर छोटी सी पहाड़ी में एक परिवार फूस का मकान बना रहा है। गाड़ी बड़ी देर से रुकी हुई है। कोई स्टेशन नहीं है, बस बीच में ही कहीं रुकी है। सहयात्रियों में कई नारद और संजय मिल ही जाते हैं। एक-एक कर के अफवाह और ख़बर आती रहीं और उनको छान के मैं ये समझ पाया कि आगे कोई रेलगाड़ी पटरी से उतर गयी है। यातायात ठप पड़ गया है। जाने क्या बात है, उस परिवार के मकान बनाने की तल्लीनता को निहारने का मन कर रहा है बस। सहयात्री नारदों ने बताया कि यहाँ कोई नया बिजली का कारखाना खुला है, और दूर दराज से आये श्रमिक एक-एक कर के घर बना रहे हैं।
किसी ख्याल की तरह, कुछ दिन में ये बस्ती जवान हो जाएगी। और मैं उस बस्ती में पला बढ़ा हूँ, जो कभी जवान थी। आज वो बूढ़ी हो चली है। मेरी उम्र के सारे लोग उसे छोड़ के शहर आ बसे हैं। श्रमिकों की ये बस्ती पीछे छूट गयी, कुछ मेरे स्कूल में ही छूट गए दोस्तों के साथ। श्रमिकों के रिटायर होकर मर जाने के बाद आज ये बस्ती अनाथ सी बिलखती है। कोयले की वो खदानें जो कभी बोगी भर-भर के कोयला उगलती थीं, आज मर चुकीं हैं। चिमनियाँ, श्रमिकों की पारी बदलने के लिए जोर से चिल्ला उठने वाला लोहे का वो साइरन, सब बस धीरे-धीरे गल रहा है। कंपनी के उस अस्पताल में अब कोई लाजवाब कहलाने वाला डाक्टर नहीं बचा। उस क्लब में अब कोई टेनिस नहीं खेलता जिसमें हम श्रमिकों की औलादों को जाने तक की अनुमति नहीं थी। आज वहाँ मवेशी, गोबर और गंदगी भरी हुई है।
मेरे ही स्कूल से छूट गए साथी, आज यहाँ ड्रग्स बेचते हैं। आज कल यहाँ की पुलिस ज्यादा बर्बर हो गयी है। पड़ोस की जवान लड़कियों को प्यार में फांस कर शहर भाग जाना भी एक नया रुआब बन गया है। एक पान की गुमटी में खड़े हो जाओ तो आस पास की सारी खबर मिल जाती है। किसका चक्कर किसके साथ है, किसने किसको मारा है, आज सट्टे का भाव क्या है, अफ़ीम कहाँ मिलेगी बस ये ही तो सुर्खियाँ हैं, यहाँ पे। मिश्र में क्या हो रहा है, दिल्ली के इंडिया गेट में क्या प्रदर्शन हुआ, क्यूँ है आंदोलन राजधानी सड़कों पर.… इनकी बला से।

खैर मन खट्टा हो जाये ऐसी बात क्यों सोचूं, घर से गाड़ी आ गयी है, हमें वापस ले जाने के लिए। सभी रेलगाड़ियाँ रद्द हो चुकीं हैं, शहर के कौतूहल को मेरा इंतज़ार कुछ दिन और करना होगा। पहाड़िया, नदी और ये रिमझिम बारिश! शहर के लोग शायद जन्नत मौत के बाद ही देख पाएंगे। हरियाली और कोहरा, मेरे सूती कुर्ते को भिगो रहा है। और शायद मेरे मन को भी। अभी का नजारा कोई देखे तो मेरे बताने पर भी यकीन नहीं करेगा कि यहाँ कभी दैत्यकारी मशीनें मिनटों में ट्रक भर कोयला निकाल दिया करती थीं।
जिस बस्ती में मेरा बचपन बीता, वो कभी घना जंगल था। अंग्रेजों ने यहाँ कोयला ढूंढ निकाला… फिर क्या था, उनकी रेलगाड़ियों को कोयला चाहिए था, अंग्रेजों को ज़मीन में क़ब्ज़ा। जंगल आदिवासियों का था, वहाँ के बाशिंदों का था। धीरे-धीरे जंगल, जानवर और आदिवासी चल बसे। मशीनों को चलाने के लिए दुसरे प्रान्त से मजदूर बुला लिए गये। मेरे पिताजी, यूँ तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय के होनहार छात्र भी थे, छात्र नेता भी। लेकिन छात्र काल में ही विवाहित हुए युवक को नौकरी लुभा ही लेती है। गाँव से हजारों मील दूर, कौन जान पायेगा कि गाँव का सबसे पढ़ा लिखा लड़का मज़दूरी कर रहा है। विदेशी कंपनी थी, आज़ादी के ३० साल बाद सरकारी हो चुकी थी। परिवार चलाने के लिए, अच्छी वेतन वाली मज़दूरी का चयन ही उनको ठीक लगा होगा। ग्रेजुएट होने के बावजूद श्रमिक हो जाना आत्मबल को कमजोर बना देता है। लेकिन पापा जी के साथ ऐसा नहीं था, सामाजिक विकास की ललक ज्यों की त्यों बनी रही।
उन्होंने मेरा एडमिशन कंपनी के सबसे बेस्ट स्कूल में कराया, जहाँ जीएम और मैनेजर के लड़के पढ़ते हैं। ये इतना आसान नहीं था, जितना लिख दिया। एक-एक कागज के लिए दफ्तर-दफ्तर भटकना पड़ा था, जिस बाबू को पता चल जाये कि ये मजदूर अपने बेटे को सेंट्रल स्कूल में पढ़ाने की हिम्मत जुटा रहा है, वो ही कागज अटका देता था। लेकिन उन बाबुओं को भी क्या पता था कि मेरे पापा इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से छात्र नेता रह चुके थे। नियति, श्रमिक को घमंड करने का मौका इतनी आसानी से कहाँ देती है?
साइकल से पापा जब पहले दिन स्कूल छोड़ने जा रहे थे। उनका रुआब देखने लायक़ था। उनके चेहरे का अभिमान चमक रहा था। उतावले पन में मेरे साइकिल से जल्दी उतरने की कोशिश में हम दोनों साइकिल के साथ गिर गए। ये घटना स्कूल के मेन गेट के सामने हुई। बारिश का महीना था, हम कीचड़ में ही गिरे थे.… सबके सामने। आज भी पापा का वो सहज चेहरा याद है। अमूमन पेंसिल की नोक टूट जाने में भी खूब फटकारने वाले पापा, बड़ी शांत मुस्कान के साथ मुझे एक पेड़ के पास बैठा के बोले "यहीं रुकना मैं घर से दूसरी ड्रेस ले के आता हूँ”
बचपन की वो आंखें, पापा की आँखों का वो लाड़ नहीं समझ पायीं थीं। आज उस ललकते चेहरे को याद करके होठों में ख़ुशी बिखर जाती हैं। 
ओह! ख़याल भी कहाँ-कहाँ भटक जाते हैं। आज इस बस्ती में शायद ऐसा परिवार नहीं रहता, आस पड़ोस के सारे बुजुर्ग गुजर गए हैं। अलाव के चारों तरफ बैठ कर, किस्से कहानी कोई नहीं सुनाता। पहले की तरह मोटे पम्प के वो बोरिंग नहीं चलते जहाँ पूरी बस्ती बाल्टी ले के आ जाती थी। आज इन घरों में टीवी आ गयी है। ठण्ड से बचने के लिए हीटर आ गए हैं। खाना बनाने के लिए गैस चूल्हे हैं। अब पड़ोस के लोग एक साथ कम ही बैठते हैं। पहले बस्ती में पुलिस आ जाये तो भीड़ लग जाती थी। आज कल उनका रोज का आना-जाना है। मेरी उम्र के लगभग सारे लड़के किसी न किसी आरोप में जेल जा चुके हैं।
रोजगार ख़त्म हो गए हैं, जंगल फिर से आबाद हो रहा है, इस बार अराजकता में इंसान भी शामिल हैं।
सच है, बस्ती बसाने में इंसान को बरसों लग जाते हैं।जंगल हो जाने में प्रकृति आज भी बिलकुल माहिर है। जान से जन्मी हर चीज़ बूढ़ी होती है। ये मज़दूरों की बस्ती भी बूढ़ी हो रही है। हर मज़दूर की औलाद तरक़्क़ी नहीं कर पाती। कई मज़दूर की औलाद तो मज़दूर बन पाने जितनी भी लायक़ नहीं हो पाती। पहले जवानी का नशा, फिर नशे का नशा, फिर नशे के लिए नशा, फिर अपराध और फिर सूनी हो जाती मज़दूर की गोद भी, बस्तियाँ भी। बूढ़े हो जाते हैं मज़दूर भी, बस्ती भी।

हाँ मगर… 

अँधेरा फिर से हारेगा, उजाले फिर से आयेंगे।  
उधर से फिर उदय होंगे, इधर को डूबने वाले। 
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