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J Rajaram

सिफ़र शेष

यूँ तो होता है
हर कोई मुंसिफ़ मगर।
हर बार फ़ैसला हो,
मुश्किल भी नहीं,
मुमकिन भी नहीं।। कनाडा, भारतीय लोगों के लिए नया राज्य जैसा है। पिछली सदी में समृद्धि की तलाश में लोग मुंबई, बैंगलोर या दिल्ली की ओर पलायन करते थे, इस सदी में कनाडा आया करते हैं।
वैसे दुनिया के लगभग सभी देश में एक ना एक भारतीय परिवार बसा हुआ है। अंग्रेज़ी हुकूमत में किए गए दास व्यापार का उस वक़्त तो ख़ौफ़नाक मंज़र था। लेकिन अतीत की दफ़्न लाशें ही भविष्य का बीज और खाद बनती हैं। इसलिए उस दास व्यापार का फ़ायदा यह हुआ कि वो ग़रीब भारतीय जो अपने गाँव में दो गज़ ज़मीन के लिए मोहताज थे वो मौरिशियस और बाली जैसे देशों के सत्ताधीश हो गए हैं।

सिफ़र शेष
“कनाडा, भारतीय लोगों के लिए नया राज्य जैसा है। पिछली सदी में समृद्धि की तलाश में लोग मुंबई, बैंगलोर या दिल्ली की ओर पलायन करते थे, इस सदी में कनाडा आया करते हैं।
वैसे दुनिया के लगभग सभी देश में एक ना एक भारतीय परिवार बसा हुआ है। अंग्रेज़ी हुकूमत में किए गए दास व्यापार का उस वक़्त तो ख़ौफ़नाक मंज़र था। लेकिन अतीत की दफ़्न लाशें ही भविष्य का बीज और खाद बनती हैं। इसलिए उस दास व्यापार का फ़ायदा यह हुआ कि वो ग़रीब भारतीय जो अपने गाँव में दो गज़ ज़मीन के लिए मोहताज थे वो मौरिशियस और बाली जैसे देशों के सत्ताधीश हो गए हैं। उस काल में हुई ताबड़तोड़ सैन्य भर्ती में जो भारतीय ब्रिटिश राज का सैनिक बना वो उन दिनों बड़ी ख़ौफ़नाक ज़िंदगी जिया, लेकिन आज उसका परिवार दुनिया के किसी न किसी देश में एक आलीशान ज़िंदगी जी रहा है।
कनाडा में भारतीय नागरिकों का आगमन दो सदी पहले से जारी है। यहाँ रहने वाले भारतीय लोगों में जातिवाद एक विशेष रूप में पाया जाता है। वो ये है कि जो भारतीय जितने दशक पहले यहाँ आया है, वो उतना उच्च-जाती का है। यहाँ इस रैंक ओफ़ अराइवल पर भारतीय रहवासियों की रहवासी कालोनियाँ बँटी हुई हैं।
मेरे दोस्त कोई पाँच वर्ष पहले कनाडा आ गए थे। यहीं बसने के उद्देश्य से, वो एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बड़े अधिकारी हैं। उनकी इस कम्पनी ने एक ऐसे अनोखे विधा की खोज की है, जिससे दिल-का-दौरा पड़ने से होने वाली मौत से इंसानों को बचा लिया जाता है। इस कम्पनी ने एक ऐसी स्प्रिंग नुमा पाइप का अविष्कार किया है, जिसे रगों के उन हिस्सों में स्थापित किया जाता है, जहाँ वसा जम-जाने की वजह से ख़ून का बहाव बाधित होने लगता है। आज इस स्प्रिंग नुमा पाइप जिसे स्टेंट कहते हैं, दुनिया में ग़ज़ब बिक रहा है। भारत में लगभग हर अस्पताल में रोज़ कम-से-कम दस व्यक्ति इस इस स्टेंट की वजह से ज़िंदा बच रहा है। मेरे दोस्त, इस स्टेंट को और अधिक बेचने के लिए स्ट्रैटेजी बनाते हैं। इस काम के लिए इन्हें इतना वेतन मिलता है कि झारखंड या उड़ीसा में कोई दो-चार गाँवों को ये गोद ले सकते हैं।
इस मुक़ाम पर आने के लिए मेरे इस दोस्त ने बहुत मेहनत की है। पढ़ाई के दौरान जब मैं गीत-ग़ज़ल लिखता था, उस वक़्त मेरे दोस्त संतोष एक दवाई की कम्पनी में सेल्समैन थे। जब मैं दीवानों की तरह आदिवासियों और गाँव वालों के हक़ की लड़ाई में धरना देता या लाठी खाता या जेल जाया करता था। तब संतोष किसी बड़ी दवाई कम्पनी के मैनेजर बन गए थे। उस दौरान मेरा और संतोष का सम्पर्क बिलकुल ख़त्म हो गया था। कब इनकी शादी हुई, कब ये परिवार सहित कनाडा आ गए। ये सब बस सोशल मीडिया में यदा कदा दिखाई देता था। हैसियत और ओहदे में संतोष इतने बड़े हो गए कि इनसे सम्पर्क रखने की कल्पना भी बे मायने हो गयी थी। मेरी भी जवानी ढलने लगी और जीवन में वो मोड़ आ गया। जहाँ कई कालेज से पढ़े लिखे नौजवान हमारे साथ सड़कों पर संघर्ष करने के लिए जुड़ने लगे। ये नवजवान बड़े पढ़े-लिखे थे, कम्प्यूटर और विदेशी भाषाओं के बड़े जानकार थे। लेकिन दुनिया का ताना-बाना इतना बुलंद होता गया कि हज़ारों-हज़ार पीड़ितों के साथ धरने, रैलियाँ, घेराव ये सब बे माने लगने लगे। अंतहीन संघर्ष, जैसे कोई कभी ना ख़त्म होने वाला श्राप हो। मेरे साथियों ने तय किया कि अब सामाजिक क्रांति की लड़ाई राजनीति में रह कर लड़ा जाएगा।
हम में से कोई राजनीति नहीं जनता था। लेकिन तीन दशक के इस सामाजिक जीवन में बाबुओं, पुलिस, प्रशासन और नेताओं से इतना पाला पड़ा और जेल में रहकर या सफ़र के दौरान विश्व नेताओं की इतनी जीवनी पढ़ी थी। राजनीति बिलकुल नयी नहीं लग रही थी। हाँ नया था, तो पुराने लोगों का नया रवैया। जो लोग सामाजिक जीवन में हमें देवता मानते थे, राजनीति में आते ही उनके विचार हमारे बारे में बदलने लगे। पिछले तीन दशक में कई ऐसे लोग और समूहों से सामना हुआ जो हमारे संघर्ष और तरीकों को सिरे से नकार देते थे। लेकिन फिर भी हमारे जज़्बे को और लगन को सम्मान देते थे। राजनीति में आते ही जैसे उन सबको कोई मानसिक बीमारी हो गयी। हम अचानक से कोई बेशर्म षड्यंत्रकारी, अस्पृश्य जीव हो गए हों। मेरे बारे में ऐसी-ऐसी अफ़वाह फैलने लगी जैसे मुझसे गिरा हुआ इंसान इस ब्रम्हाण्ड में भी ना होगा। सच में, जीवन ऐसे मोड़ पे लाकर खड़ा कर देगा जहाँ आत्म-सम्मान नगण्य और आत्म-ग्लानि सर्वत्र हो गयी। अपने जीवन के बारे में मैंने इतना न्यूनतम कभी नहीं सोचा था।
सामाजिक संघर्ष में मिले नौ-जवानों ने राजनीति करने की राह दिखाई। उन्होंने सोशल मीडिया के उपयोग और उसके प्रभाव से अवगत कराया। मैं अपने संघर्ष, विचार, लक्ष्य और राजनीति में आने के अपने कारण और राजनीति से अपनी अपेक्षा को यूट्यूब और ट्विटर के माध्यम से प्रसारित करने लगा। इस माध्यम से कई फायदे हुए, नुक़सान भी हुए लेकिन विडियो रेकार्ड करते वक़्त मैं अपने विचारों को और अधिक संगठित करने, सुगमित करने और आवेशित करने में सफल हो पाया। इसी विडियो की वजह से मेरे पुराने मित्र संतोष ने मुझसे सम्पर्क किया। विधानसभा चुनाव नज़दीक थे।मध्यप्रदेश की 230 विधानसभाओं में चुनाव लड़ना था। एक सीट के चुनाव में होने वाला अनुमानित ख़र्च कम से काम 30 लाख रुपय था। नए-नए दल को जो मज़दूरों, किसानों और आदिवासियों के हित की लड़ाई लड़ रहा हो उसे कोई पूँजीपति, व्यापारी या सत्ता के नशे में जीनेवाले ठेकेदारों से तो कोई चंदा मिल ही नहीं सकता था। दल के सदस्य और अन्य नेता बहुत मेहनत कर के भी कोई एक दो करोड़ रुपये की मदद कर पा रहे थे। लेकिन 2017 में हुए अन्य राज्य के विधानसभा चुनावों में सत्ता पाने वाले दल ने एक वोटर पर लगभग 70 रुपये ख़र्च किए थे, जो की कोई 6 हज़ार करोड़ रुपए का आँकड़ा था। ऐसे में कोई 2 करोड़ रुपए से पूरे प्रदेश का चुनाव लड़ना जैसे एक रोटी से पूरे गाँव का पेट भरने जैसा इंतज़ाम था।
संतोष ने फ़ोन पर मुझे बहुत शुभकामनाएँ दी, वो अपने जीवन को तुच्छ बता कर मेरे जीवन को महान बता रहा था। उसकी ये बातें मुझे यथार्थ कम और तंज ज़्यादा लग रही थीं। लेकिन संतोष ये सब कुछ पूरे हृदय से कह रहा था। उसने मुझे चुनाव ख़र्च का चंदा इकट्ठा करने के लिए कनाडा आने का न्योता दिया। मेरे आने-जाने और वहाँ होने वाले सभी ख़र्चों का बंदोबस्त उसने ही किया। मैं ने अपनी पार्टी की रज़ामंदी के बाद कनाडा जाने का निर्णय किया।
कई भूख हड़ताल, जेल प्रवास, गरमी, आँधी, तूफ़ान, मीलों पैदल चलने और रात-रात भर कोर्ट कचहरी के दस्तावेज़ तैयार करने के अपने तीन दशकों को मैं आजकल लिपिबद्ध कर रहा हूँ। बीमारी और मानसिक तनाव शायद मुझे कमज़ोर कर रहे हैं। ऐसे में मेरी ये किताब आने वाली पीढ़ी के लिए मेरे संघर्ष की विरासत होगी। मैं कोई क्रांतिकारी या दर्जा प्राप्त संघर्ष वादी नहीं हूँ, ना ही मैंने कोई विशेष मुक़ाम हासिल किए हैं। लेकिन मेरी ये जीवनी लिखने का मेरा एक मुख्य उद्देश्य है। यह कि आने वाली पीढ़ी को ये पता हो कि सत्ता और समाज के बीच चल रहे इस संघर्ष में केवल जीतने वाले सिपाहियों का ही योगदान नहीं होता। बल्कि उन सिपाहियों की भी क़ीमत होती है, जो अनजाने ही इस दुनिया से चले गए।
परसों जब संतोष से रु-ब-रु बात होगी तो इस बात पे सवाल उठेंगे कि क्यूँ मैं ने नौकरी, विवाह और धन सम्पदा की ज़िंदगी को ठुकराकर जल-जंगल-ज़मीन के अधिकार की लड़ाई में ख़ुद को झोंक दिया। ये क्यूँ हुआ कि मैंने संगीत से लेकर सियासत तक सिर्फ़ और सिर्फ़ क्रांति के सुर पिरोए? कालेज के दिनों के बाद से कभी इश्क़ नहीं गाया। सच कहूँ तो मुझे इन सवालों के जवाब तो मालूम है। लेकिन जवाब देना भी है कि नहीं इसका जवाब नहीं मालूम। वैसे संतोष ने जिस लिहाज़ में मुझे टोरंटो बुलाया है, उस लिहाज़ से उसमें व्यापक सामाजिक समझ और समुदाय के प्रति उत्तरदायी होने की सम्भावना प्रतीत होती है। ऐसे में वो ऊल-जलूल बहस तो नहीं करेगा लेकिन जब कोई इंसान अपनी गाढ़ी कमाई का एक अंश दान कर रहा हो, तो उसके प्रति उत्तरदायी होना मेरा कर्तव्य है। और जब दुनिया धन वैभव पाने की प्रतिस्पर्धा और मौलिक अधिकार पाने की लड़ाई के बीच बँट गयी हो। जहाँ एक ओर गगन चुंबी इमारतों में रहने वाले लोग बेहद मुश्किल से कमाई गयी दौलत को किश्त-दर-किश्त ख़र्च कर के अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित कर रहे हों वहीं दूसरी तरफ़ सुदूर जंगल में झोपड़ी में रहने वाले लोग जिनके घर, ज़मीन, रोज़गार, परिवार सब कुछ सत्ता की आग में जल रहा हो, तो फिर वो कौन सी विचारधारा और कौन सा तर्क होगा, जो दोनो दिशा में संघर्ष कर रहे लोगों को एक साथ ला पाएगा?
जहाज़ में बैठा मैं नितांत देहाती जिसने विश्वभर के क्रांतिकारियों के संघर्ष को अंग्रेज़ी भाषा में पढ़ा है। जिसने देश के संविधान और क़ानूनी दाँवपेंच को समझने में अपना जीवन ख़र्च किया है। जो आदिवासियों के बीच रहकर उनका खाना, उनकी तहज़ीब और उनके त्योहार ही मनाए हैं। वो इंसान जहाज़ में बैठे बाकी लोगों से कितना अलग है, ये कोई भी समझ सकता है। मौजूदा सियासत ने हर इंसान को एक बाइनेरी विचार का ग़ुलाम बना दिया है। हर इंसान हर दूसरे इंसान को “हम बनाम तुम सब” की नज़र से देखता है। हम के भी कई विन्यास हैं, धर्म, जाति, लिंग, देश, भेष, भाषा, क्षेत्र, खानपान और ना जाने क्या क्या? हर क़िस्म के लोग हर दूसरे क़िस्म के लोगों से ख़ुद को उत्कृष्ट, न्याय संगत, तार्किक और विचार सम्पन्न मानते हैं। और इस लिहाज से अन्य को कमतर आँकते है। सभी ने अपनी सुविधा से अपना एक ताना बाना बुन लिया है, और हर क़ीमत पर अपने उस ताने-बाने को सर्वश्रेष्ठ और वैज्ञानिक साबित करने पर जुटे रहते हैं। जबसे मोबाइल के आने से संचार के साधन सशक्त हुए हैं, तब से ये बहस गली-मोहल्लों से उठ के वैश्विक हो गयी है। औद्योगिक क्रांति ने साधारण लोगों को और अधिक आज़ाद होने का भ्रम दे दिया है, वहीं सत्ता भ्रम फैलाने और जनता में आपसी द्वेष को बनाए रखने में और अधिक सफल हो रही है। आज मोबाइल पर दूध से कैन्सर होने या बिस्कुट में ज़हर होने से लेकर चाँद में एलीयन की मौजूदगी तक सभी भ्रम को अति-सत्य के रूप में फैलाया जा रहा है। ऐसे में झाबुआ के जंगलों से उठकर, मैं टोरोंटो की कालजयी इमारतों में रहने वालों से मिलूँगा तो वो मेरी कौनसी बात पर कितना यक़ीन करेंगे? ये सभी विचार किसी सिनेमा की तरह मेरे मन में कौंधते रहे।
संतोष और उसकी पत्नी मुझे लेने एयरपोर्ट आए हैं। कुमुद ने हाथ मिलाते ही मुझसे कहा कि सैंटी मेरा इतना बड़ा फ़ैन है कि उसे मुझसे जलन होने लगी है। दुआ-सलाम का ये अनोखा तरीक़ा है, जब दोस्त का दोस्त आपकी दोस्ती से होने वाली जलन का ज़िक्र करने लगे तो समझो आप एक ख़ुशहाल जीवन जी रहे हो। जैसा सुना था सैंटी का घर बेहद आलीशान था।उसका बेटा किसी बड़े कालेज में पढ़ाई कर रहा है। और उसे बहुत बड़ी कम्पनी में नौकरी करने का ऑफ़र भी मिल चुका है। सात्विक सिर्फ़ मुझसे मिलने के लिए अपनी यूनिवर्सिटी से अपने घर आया है। सैंटी, कुमुद और सात्विक आज मेरे मेज़बान थे और तलबगार भी। उनके सवाल मुझे उन लोगों के प्रति सम्मानित कर रहे थे, जिन्हें अमूमन ब्रेन-ड्रेन और मौक़ा परस्त की उपाधि से नवाज़ा जाता है। कुमुद ने कहा कि ग़रीबी ने ज़मीन पर इतनी सड़न पैदा कर दी है कि उस जगह को छोड़ देना ही ख़ुद को सैनिटायज़्ड रखना है। वैसे भी वहाँ कुछ सुधरने वाला नहीं है। सात्विक ने बताया कि कैसे पूँजी का घनत्व ही श्रम की मदद इतनी आमदनी कर पाएगा कि ग़रीबी न्यून होती जाए। और आमदनी का सार्थक बँटवारा हो पाए। कैसे पूँजी ही प्रत्येक व्यक्ति को आमदनी करने के लिए विवश करेगा, और ग़रीबी ख़त्म होगी। द ग्रेट इंकम डिवाइड पर हुई इस बहस ने खाने की मेज़ में पूरे विश्व की राजनीति का प्रारूप बिछा दिया था।

“यू नो राजाराम॰॰॰” कुमुद ने बहस थमने की कगार पर अंतिम टिप्पणी के रूप नसीहत देने के अन्दाज़ में कहा “इनफ़ हैव हैपेंड, गेट आ लाइफ़ फ़ॉर योर सेल्फ, जेल जाना, सत्याग्रह करना, लाठी खाना, भूख हड़ताल ये सब कुछ बहुत पवित्र काम हैं, लेकिन जब सिस्टम बहरा और अंधा हो गया हो तो इतनी तपस्या का अर्थ शून्य ही हो जाता है। मुझे नहीं लगता इतने अच्छे विचारों वाले इंसान का अंत ऐसा हो जिसमें हासिल हो तो बस सिफ़र॰॰॰”
इतनी लम्बी उड़ान और दिन रात के समय में हुए बदलाव के बाद भी आज की रात नींद कोसों दूर थी। इतने सारे सवाल थे, ख़ुद से भी, दुनिया से भी कि जैसे दिमाग़ उबलते दूध की तरह उफ़न कर बाहर गिर जाएगा। भूख हड़ताल के दौरान दिनभर लोगों का मजमा रहता था। गीत-गाते हुए लोगों से बतियाते हुए दिन निकल जाता था, लेकिन रात बिलकुल अकेली होती थी। अंदर सवाल कौंधते थे, और बाहर अमावस की रात पूस की सर्दी में सिहरन बिछा देती थी। पल-पल अपनी ज़िंदगी से सवाल करते हुए काटने पड़ते थे। डॉक्टर की रिपोर्ट में लिवर, किडनी, क्रेटिनाइन, ग्लूकोज़ और ना जाने क्या-क्या ये बताते थे। कैसे शरीर एक दिन बिलकुल निष्क्रिय हो जाएगा। कैसे एक दिन ये वजूद का अनंत शून्य हो जाएगा। ऐसे में क्या रह जाएगा मेरे जाने के बाद?
आज इस मंच पर मुझे जो लोग सुनने वाले हैं, उनकी जेबों में प्रचुर धन है। धन सवाल पूछने में सशक्त और जवाब ना देने में शातिर होता है। वो लोग अपने देश और समाज के लिए कुछ देना चाहते हैं। मेरा आज का भाषण किसी को उद्वेलित करना, आक्रांत करना या कोई मेडल जीतना नहीं है। आज इस मंच से, मैं क्या बोलूँगा वो इस बात को निर्धारित करेगा कि क्या मेरा दल मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में कोई विकल्प हो पाएगा या नहीं। आज मेरी प्रतिस्पर्धा ख़ुद मुझसे है। आज ये साबित हो जाएगा कि मेरे अंदर कौंध रहे लाखों विचार या तो मात्र विचार हैं।या इनका कोई सांसारिक स्वरूप भी होगा? बेशक मैं नर्वस हूँ, क्यूँ कि मुझे नहीं पता दशकों पहले भारत से आकर बसे इन लोगों की कल्पना में भारत कैसा दिखता है? उस भारत में मध्यप्रदेश भी दिखता है या नहीं? वैसे भी इस महाद्वीप में रहने वाले लोगों की नज़र में भारत दो तरह का दिखता है। उनके लिए भारत या तो बैंगलोर, हैदराबाद, दिल्ली और ताजमहल है। या फिर साँप-सँपेरे, शेर, जंगल, आदिवासी, घनी, बीमार बस्तियाँ और आए दिन होने वाले दंगे हैं। एक दशक पहले देश छोड़ चुके लोग मुझसे किस तरह के भारत का परिचय चाहेंगे? ये मुझे नहीं पता, उसमें भी मध्यप्रदेश से उनकी क्या सहानुभूति होगी? ये भी मुझे नहीं पता। चंदे के रूप में जो रक़म मुझे चाहिए, वो इतनी बड़ी है कि ये भी समझा पाना मुश्किल है। इतनी रक़म के बाद भी चुनाव नहीं जीत पाए तो क्या होगा? आज दिल बिल्कुल वैसे ही धड़क रहा है जैसे दसवीं की परीक्षा के बाद रिज़ल्ट आने वाले दिन धड़का था। मंच पर जाने से पहले संतोष को अपना हाल बताया तो वो हंस कर कहने लगा “भाई, बधाई हो तुम तो जवान हो रहे हो!”
मंच पर संतोष ने मेरा परिचय दिया। मुझे भी नहीं पता था कि मेरी तारीफ़ में इतना भी कुछ कहा जा सकता है। ख़ैर मित्रता क्या होती है? कोई मित्र अपने मित्र के लिए क्या-क्या कर सकता है? इसका अंदाज़ा लगाना समुद्र की गहराई का अंदाज़ा लगाने जितना मुश्किल है। अब बारी मेरे बोलने की थी।


प्रवासी भारतीय संघ टोरोंटो के सभापति, मित्रों, बंधुओं और भाई बहनों,
लाखों मील दूर से भारत कितना समग्र और एकात्म दिखाई देता होगा? ये जान पाना ही मेरा आप लोगों से मिलने की सर्वोत्तम भेंट है।
आप सब को यहाँ देख कर ये सम्भव लगता है कि यदि समान अवसर और अच्छी तालीम मिले, तो हम भारतीय क्या कुछ नहीं कर सकते। टोरोंटो की इस मीटिंग में आप लोगों से मुख़ातिब होकर मैं सुदूर झाबुआ की झोपड़ियों में रहने वाले साथियों की कभी न उपयोग हो सटिक क्षमताओं को भली भाँति आंक पा रहा हूँ। आप लोगों से मिलकर, मैं आस्वस्त हुआ हूँ कि बिना किसी संसाधनों के अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हज़ारों साथी एक दिन ज़रूर सफल होंगे और दुनिया को उन पर गर्व होगा।
साथियों, नवीन भारत का पुनर्गठन बड़ी संजीदगी से हुआ है, जहाँ एक राष्ट्र का निर्माण हुआ, वहीं संघीय व्यवस्था ने क्षेत्रीय परिवेश को भी सुरक्षित रखा। आज हम भारतीय होने के साथ-साथ अपने गुजराती होने, मराठी होने, बंगाली, कन्नडिया, तमिलियन, बिहारी, कश्मीरी, असमिया, उड़िया और पंजाबी होने पर भी फ़क्र महसूस करते हैं। क्यूँकि ये सभी राज्य भारत संघ के भीतर एक स्वतंत्र राज्य हैं। इन्हीं राज्यों के बीच कुछ ऐसे भी राज्य हैं जिन्हें कृत्रिम परिचय प्रदान किया गया है। इन राज्यों के लोग ऐसे किसी क्षेत्रीय नाम से नहीं पुकारे जाते, जिस पर इन्हें फ़ख़्र महसूस हो। जैसे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश। ये दोनो राज्य क्षेत्रफल में बहुत बड़े हैं। मैं मध्यप्रदेश का निवासी हूँ, इन राज्यों को कृत्रिम राज्य इसलिए भी कहते हैं, क्यूँकि इन्हें भाषा और संस्कृति के आधार में पहचान नहीं मिली है। मध्यप्रदेश मालवी, निमाड़ि, महाकौशली, बुंदेली, बघेली आदि कई सांस्कृतिक इकाई में बाँटा जा सकता है। वैसे इतने सारे राज्यों का गठन करना भारतीय संघीय ढाँचे की संप्रभुता की दृष्टि से सम्भव नहीं था। फिर भी सन 2000 में मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग हुआ और इस राज्य का पुनर्गठन हुआ। आज यह राज्य तीन लाख आठ हज़ार वर्ग किलोमीटर के दायरे मैं फैला है, इसमें 52 जिले, 29 संसद सीट और 230 विधानसभा सीटें हैं। मुख्यरूप से आदिवासियों का यह राज्य, जिसमें अन्य प्रांत के लोग भी बड़ी संख्या में रहते हैं जन, जंगल और ज़मीन के अधिकार को लेकर हमेशा संघर्ष में रहा है।
प्राकृतिक सम्पदा में सबसे अमीर राज्य मध्यप्रदेश देश का सबसे उपेक्षित राज्य है। यहाँ की आठ करोड़ आबादी में से 42% जंगल में रहती है। और जो गाँवों, क़स्बों और शहरों में रहते हैं उनमें से 70% लोग भी मौलिक ज़रूरतों को पूरा नहीं कर पाते हैं। इस राज्य का 80% शिक्षित युवा किसी अन्य राज्य में नौकरी करता है। जो युवक इसी राज्य में रह जाता हैं, उनमें से 10% किसी ना किसी संगीन अपराध में लिप्त हैं। किसान आत्महत्या, बेरोज़गारी, बलात्कार, घरेलू हिंसा, जमाख़ोरी, बंद होते सरकारी स्कूल, ठप्प पड़ी सरकारी परिवहन व्यवस्था, बिजली उत्पादन के सारे सरकारी संयंत्र बेहद उत्पादन के बाद भी घाटे पर हैं। और निजी बिजली कारख़ाने अत्यधिक मुनाफ़े पर हैं। इस राज्य में ऐसा कोई विभाग नहीं जो शर्मनाक रूप से निष्क्रिय और निरर्थक ना कहा जा सके। यही सिर्फ़ इसलिए कि दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और मुंबई से रेल मार्ग से आने-जाने वालों को भी ये नहीं पता चलता कि मध्यप्रदेश राज्य की सीमा कब शुरू हुई और कब ख़त्म हो गयी। राष्ट्रीय स्तर पर यूपी बिहार तो फिर भी अपनी एक पहचान रखते हैं, लेकिन मध्यप्रदेश किस नक़्शे में आता है यह भी बहुत कम लोगों को पता है। मित्रों मेरा राज्य जन चेतना के अभाव से पीड़ित है और इसलिए उपेक्षित है। हम ये विधानसभा चुनाव इसी मुद्दे पर लड़ रहे हैं। हमारा मनिफ़ेस्टो एक ऐसे दस्ते ने तैयार किया है, जिनकी तालीम और तजुरबे पर विश्व के बड़े कारपोरेशन भी शक नहीं करते। ये दस्ता पिछले 45 दिनों से राज्य के 52 जिलों में घूम रहा है, वो भी उस वक़्त जब राज्य का औसत दिन का तापमान 42 डिग्री है। राज्य में 65200 बूथ हैं और 42123 बूथ भवन हैं। हम इन में से 32 हज़ार बूथ भवनों तक अपने दल का विस्तार कर चुके हैं। हम पूरे 230 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं, और पूरी ताक़त सत्ता हासिल करने की योजना से ही चुनाव लड़ना चाहते हैं।
मुझे पता है कि मेरे बारे में और मेरे दल के बारे कई भ्रामक बातें इंटरनेट के माध्यम से फैलायीं गयी हैं। आप सब को मेरे और मेरे दल के प्रति कई भ्रमित जानकारी होंगी। मेरी गुज़ारिश है कि आप मुझसे सवाल करें और जब आप आस्वस्त हो जाएँ कि हम जनता की लड़ाई को विधानसभा के भीतर ले जाने के उद्देश्य से राजनीति में आए हैं, तो आप सब लोग मिलकर हमें इस लड़ाई को लड़ने के लिए संसाधन से लैस करने की कृपा करें।
मैं चुनाव लड़ने और उसपर होने वाले ख़र्च पर विस्तार से अपनी बात रखूँगा लेकिन पहले मैं आप लोगों के सवालों कर उत्तर देना चाहता हूँ। मुझे भ्रम की अर्थी पर ही विश्वास की नींव रखनी है, यही मेरा राजनीतिक संकल्प है।”
***
कई व्यक्तिगत सवाल उठे, कई ऐसे महिला क्रांतिकारी साथियों के प्रति मेरी नैतिकता पर भी सवाल पूछे गए। कुछ एक सवाल के बाद मंचासीन साथियों ने ही विवाद की स्थिति को टाला और पूरे कार्यक्रम को चालू रखा। मैं भी हर व्यक्तिगत सवाल को प्रदेश की परेशानियों तक खींच लाता था। मुद्दे से ना भटकने की पूरी कोशिश रही। तभी एक महिला सभा सदस्य ने पूरे सवाल-जवाब के दौर को एक वाक्य में ही ख़त्म कर दिया। उक्त महिला ने पूरी सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि “इस व्यक्ति की परख इसके सामाजिक योगदान से होनी चाहिए। ये महोदय अपने निजी जीवन में क्या करते हैं, इससे सदन को कोई राय नहीं बनानी चाहिए।” कुछ देर तक लोगों ने इस बहस को खींचा लेकिन वो महिला सभा को आगे बढ़ाने में बेहद कामयाब रहीं।
मैं सोचता रह गया कि काश यही हिम्मत हस्तिनापुर की उस सभा में द्रौपदी ने दिखाई होती जिस सभा ने एक नारी का चीर हरण किया था।
उस रात देर तक मैं संतोष के साथ उसके टेरेस पर ही बैठा रहा। मैं ने संतोष से अपनी हताशा ज़ाहिर की, सिस्टम से लड़ने की हताशा, परिवार से बग़ावत करने की, कई-कई दिनों तक भूखे पैदल चलते रहने की, बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ कर छोटी-छोटी लड़ाइयों के शुरू करने के भरसक प्रयास की। ग़रीबी और लाचारी से मरते लोगों के बीच असहाय महसूस करने की। कभी-कभी ये सब छोड़ के कहीं दूर एकांत में चले जाने की इच्छा हावी होने लगती है। दुनिया के सामने ताक़तवर बने रहने की तपस्या अंदर ही अंदर जीर्ण कर देती है। एकांत में छुपके रोने के लायक़ भी नहीं छोड़ती ये दुनिया। इतना सब कुछ करने के बाद भी भ्रम और झूठ जीत जाते हैं। हमारी अपनी ज़िंदादिली हम पर ही हंसने लगती है। बेहद नाज़ुक होता है, ये जीवन जिसमें लालसा ना होकर भी लालसा होती है। जीतने की ज़िद होती है, जबकि भीतर ये भी पता होता है कि जीतना बिल्कुल भी आसान नहीं है।
संतोष पूरी शिद्दत से मुझे सुन रहा था। बहुत देर तक, उसकी आँखें मुझे इस लिहाज़ से घूर रही थी। जैसे वो किसी लाचार इंसान को देख रहा हो।
बहुत देर की चुप्पी के बाद उसने बेहद नरमी से अपनी बात रखी।
“दोस्त पता है, आज मेरे रिश्तेदार मुझे बेहद सफल इंसान मानते हैं। जानते हो ना क्यूँ? क्यूँकि मैं कनाडा में हूँ, मेरा घर है, गाड़ियाँ हैं, बेटा अच्छी तालीम पा रहा है। कई रिश्तेदार मेरी वजह से अच्छी नौकरी या अच्छा बिजनेस कर रहे हैं। पता है, ये सब समाज में बड़ी हैसियत देता है, मुझे भी यही लगता था। लेकिन फिर एक दिन एक अख़बार का टुकड़ा हाथ लगा जिसमें एक बेहद प्रख्यात सन्यासी की एक बात लिखी थी “की आज से 100 साल बाद ये मायने नहीं रखेगा की तुम कितने बड़े महल में रहते थे, या कितनी क़ीमती गाड़ी से घूमते थे। मायने ये रखेगा कि तुमने कितने आँसू पोंछे हैं। कितने को भुखमरी से बचाया है, कितने आपकी वजह से शिक्षित हुए और वो लोग आज जीवन में कहाँ खड़े हैं”
पता है दोस्त, मुझे मेरे रिश्तेदार और व्यापारी संघ के बाहर कोई नहीं जनता। और मुझे ये भी याद नहीं कि मैंने इन दोनो के अलावा कभी किसी के लिए कुछ किया भी है। लेकिन तुम? दोस्त, आज तुम्हारी वजह से हज़ारों-हज़ार लोग भविष्य की ओर बढ़ चले हैं। अभी भी तुम अथक प्रयास में जूझ रहे हो। फिर सोचो और कितने लोग तुम्हारी वजह से उस ग़रीबी और लाचार ज़िंदगी को छोड़ कर भविष्य का रूख करेंगे? निश्चित ही तुम्हारा काम कठिन हैं, लेकिन ये इतना महान काम है कि इसका प्रतिफल सदियों तक लोगों की उम्मीद बनेगा।
सच कहूँ तो उम्र के इस ढलान पे जवानी के कई प्रतिस्पर्धी ख़याल बेमानी लग रहे हैं। हालाँकि मेरे बेटे से बात करते वक़्त मैं बिलकुल वैसा ही हो जाता हूँ जैसा जवानी में था। लेकिन तन्हाई में ये सवाल दोनों आँखों के बीच झूलने लगता है, इतनी आपा-धापी का शेष क्या है? पीढ़ी दर पीढ़ी दौलत कमाने से भी सब संवर जाएगा ऐसा भी नहीं है। जिस मुग़लिया सल्तनत की तूती बोलती थी, उसकी पीढ़ी आज आगरा के बाज़ारों में रिक्शा खींच रही है। ये सुन के तो यही लगता है, दौलत का रास्ता भी सही नहीं।
फिर, स्टेटस्टिकस यही कहता है कि ग़रीबी से जूझ रहे परिवार अगले सौ सालों तक भी ग़रीबी से नहीं उबर पाएँगे। तो फिर? तो यार राजाराम तेरा तरीक़ा भी सही नहीं लगता। राजनीति, व्यापार, समाज सेवा सब कुछ इंसान को मशरूफ रखने के खिलौने से लगते हैं।”
संतोष देर तक बोलता रहा, जैसे कई वर्षों से उसने अपने दिल की बात किसी से ना कही हो। अंदर ही अंदर एक इंसान कितना असीम होता है। बाहर तो ये देह का पुतला भीड़ का हिस्सा लगता है। अंदर से समुद्र है, बाहर से एक बूँद में सिमटा हाड़-मांस का जिंद। इस पतंगे का हौसला तो देखो! ये ब्रम्हाण्ड को अपने बस में करने के ख़्वाब देखता है। कैसे देखता है? क्यूँ देखता है? इन सवालों से ज़्यादा ज़रूरी था, संतोष के मन में उठे बवंडर को शांत करना। मैं भी कुछ ऐसा ही मिला जुला सा कुछ बोल पाया।
“ठीक से तो कोई नहीं जानता के भविष्य के गर्भ में क्या है। लेकिन हज़ारों वर्ष के इतिहास से भविष्य की दिशा को आंका जा सकता है। इंसानों ने जाने कब सत्ता और जमात में ख़ुद को बाँट लिया। और कैसे ये सत्ता इतनी शक्तिशाली हो गयी होगी, इसको समझा जा सकता है। कैसे, संसद और लोकतंत्र के माध्यम से जनता ने सत्ता में वापिस सेंध लगायी है, ये भी समझा जा सकता है। ये खींच तान लम्बी चलेगी। इस लड़ाई को गृहस्थ जीवन के साथ नहीं लड़ा जा सकता। जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या होना चाहिए इसपर तो सोचा जा सकता है, लेकिन मानवजाति का अंतिम लक्ष्य क्या होगा इस पर सोचना और जीवन के बाकी संघर्षों का सामना करना एक साथ नहीं हो सकता। फ़ैसला तो करना ही पड़ता है, किसी भी फ़ैसले का फल क्या होगा इसको जाने बग़ैर। क्यूँकि सटीकता से तो आंका ही नहीं जा सकता कि कौन सा पैंतरा किस करवट बैठेगा। लेकिन हमारा सटीक होना, सही होना ये सब इस एक बात से कमतर है कि हम हैं। हमारा वजूद है तो हमारा किरदार भी होना है। फ़ैसले करते रहना ही ख़ुद के किरदार को गढ़ते जाना हैं। कालांतर में इस किरदार की क़लंदरी भी नहीं बचेगी, रह जाएगा तो बस सिफ़र…
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