हौसला
हमने उड़ने की ठान ली है,
तुम नज़रें आसमान में रखना! इस कहानी का एक किरदार मैं ही हूँ| ये दो पुरुषों के बीच की बात चीत है। जिसमें से एक पुरुष यानी कि खुद मैं, इस लड़की से कभी नहीं मिला। जिसके बारे में हम दोनों बात कर रहे हैं और दूसरा व्यक्ति जिससे मेरी बात हो रही है। उससे भी मेरी मुलाकात बस कोई पाँच मिनट की होनी तय थी। जो खींचकर एक घंटे की हो गयी। न इस घटना से पहले मैं उससे कभी मिला और न फिर आगे कभी मिलने का कोई सूत्र बचा है। वैसे भी एक साइकल रिक्शे वाला कोई हस्ती तो है नहीं कि किसी से पता पूछते हुए उसके घर तक पहुंच जाओ। हाँ, लेकिन उस दिन के बाद से जब कभी भी दुर्ग-भिलाई जाना हुआ है, हर बार उस रिक्शे वाले से टकरा जाने की हसरत रेलवे स्टेशन से होटल तक और होटल से रेलवे स्टेशन तक साथ चलती रही। उसने ही बताया था कि जला राम मिष्ठान वहां की सबसे प्रसिद्ध मिठाई की दुकान है।
“इस कहानी का एक किरदार मैं ही हूँ| ये दो पुरुषों के बीच की बात चीत है। जिसमें से एक पुरुष यानी कि खुद मैं, इस लड़की से कभी नहीं मिला। जिसके बारे में हम दोनों बात कर रहे हैं और दूसरा व्यक्ति जिससे मेरी बात हो रही है। उससे भी मेरी मुलाकात बस कोई पाँच मिनट की होनी तय थी। जो खींचकर एक घंटे की हो गयी। न इस घटना से पहले मैं उससे कभी मिला और न फिर आगे कभी मिलने का कोई सूत्र बचा है। वैसे भी एक साइकल रिक्शे वाला कोई हस्ती तो है नहीं कि किसी से पता पूछते हुए उसके घर तक पहुंच जाओ। हाँ, लेकिन उस दिन के बाद से जब कभी भी दुर्ग-भिलाई जाना हुआ है, हर बार उस रिक्शे वाले से टकरा जाने की हसरत रेलवे स्टेशन से होटल तक और होटल से रेलवे स्टेशन तक साथ चलती रही। उसने ही बताया था कि जला राम मिष्ठान वहां की सबसे प्रसिद्ध मिठाई की दुकान है।
बात लड़कपन से थोड़ा ही उम्रदराज हुए दिनों की है। काम के सिलसिले में भिलाई-दुर्ग कई बार जाना हुआ है। लेकिन इस बार जाने की वजह पर्सनल थी। एक निहायत ही ना उम्मीदी की उम्मीद में गया था। जिसके साथ जीवन जीने का सपना देखा था, उसकी माँ से मिलने गया था। जात-धरम, नौकरी, ओहदा सभी गुंजाइश ना की ओर ही इशारा कर रहीं थी। लेकिन कौन से दरवाज़े में मुहब्बत का रास्ता मिलेगा, इस उम्मीद में सभी दरवाज़े खोलते जाना ही जीते जाने का विकल्प है। हालाँकि इस बातचीत से हुआ कुछ भी नहीं, जैसा तय था की मायूस ही लौटेंगे। मायूस ही लौटना था। आगे दर्द मिलेगा ये सोच के दर्द सहने की पहले से तैयारी तो कर लेते हैं, लेकिन दर्द की खूबी ही यही है कि जितनी तैयारी है, दर्द उससे ज़्यादा ही उठेगा। सारी मिन्नतें, दावे, क़समों का नतीजा सिफ़र था। हम दोनों ने तय किया था, अगर परिवार साथ नहीं तो हम दोनों अपने रास्ते अलग कर लेंगे। आज वो दिन था, इश्क़ ने मेरा शिकार किया था। लेकिन इश्क़ में घायल होने का सबब ये है कि ज़ख्मों को ढक के रख।
इस घायल जवानी के नितांत दुखों के बीच मिला था ये बारीक़, पतंगे सा मरियल रिक्शे वाला। जवानी में मुहब्बत कितनी जरूरी है, इसका अनुमान इस मुलाक़ात से पहले कुछ कम ही था। उस दिन अगर दिल टूटा नहीं होता तो शायद ही मैं उस रिक्शे वाले से बात करता। और ऐसी भी कोई वजह नहीं थी कि वो रिक्शे वाला मुझसे कोई बात करता।
कोई एक दशक पहले, भिलाई के एक होटल से दुर्ग रेलवे स्टेशन जाते हुए इस बन्दे से मुलाक़ात हुई थी| पसीने से लत-पत नीले कलर का शर्ट अब गहरा नीला दिखने लगा है, हाँफता हुआ, एक बेजान सी काले रंग की साइकिल रिक्शा घसीट रहा था। रिक्शा और उसकी हालत में किसपर अधिक दया की जाए, ये सवाल भी बना ही रह गया आज तक। सीट का कवर फटने के कारण पीला कुशन उखड़ा हुआ था। उस रिक्शे में पीछे बैठने की जगह दो लोगों की थी, जिसमें महंगाई का बोझ मिलाकर शायद पाँच लोगों को ये आसानी से बैठा लेता होगा।
मेरा बचपन मज़दूरों के बीच बीता है, तजुर्बे से कह सकता हूँ। इस रिक्शे वाले की उम्र शायद कोई 30-35 की रही होगी। मगर उसका बूढ़ा शरीर कोई 55-60 बरस का लग रहा है| उलट इसके, मैं उससे बोरे दो बोरे ज़्यादा भारी, हट्टा-कट्टा, 24 वर्ष का बचपना लिए मंद-बालक सा पूरे फैशन में काला चश्मा लगाये, सफ़ेद शर्ट और नीली जींस में, अपने काले रंग के ट्रेवल बैग के साथ उस रिक्शे में चढ़ गया| उस दिन हर तरफ़ दुःख फैला हुआ था| रिक्शे वाले के पास तो क्या ही सुख होगा, लेकिन मेरा दुःख कोई ग़ज़ल प्रेमी आसानी से समझ सकता है| गम और इश्क़ पर मैं अपने आप से बतियाते हुए थक गया था इसलिए इस अजनबी से बतियाना मन बदलने की बेकार कोशिश ही सही पर कर ली |
पैर पसारे आराम से बैठे हुए, आस-पास के माहौल को निहार रहा था| और रिक्शा खींचते हुए उस इन्सान से मैं बतियाने में भी लगा था| जीवन कई बार ऐसे मोड़ पे होता है, जब आप ग़ुस्सा नहीं होते, हताश होते हो। लेकिन हरकतों में सिर्फ़ ग़ुस्सा भरा होता है। ग़ुस्सा भी पुकार के कह रहा होता है कि कोई उसे गले लगा ले बस। पिघल के पानी हो जाए, ग़ुस्सा भी और हताशा भी। लेकिन ऐंठन में जीने का चलन है, न कोई बुहार के बोलता है, न किसी को फ़ुरसत है सुनने की। अपनी हताशा छाँटने के लिए या दिल कहीं और लगाने के लिए अजनबी से बात करिए। फिर टाइम पास करने के लिए उन दिनों स्मार्ट फ़ोन बहुत महँगे हुआ करते थे| रिक्शा खींचते हुए, वो मेरे हर सवाल का जवाब ऐसे ही कराह के दे पा रहा था जैसे मैं उसके मुँह में लगी लगाम को जबरन खींच रहा हूँ| जून के महीने में, शाम चार बजे भी धूप पीली नहीं होती, और आग तो चौथे पहर तक बरसती है| उस पर से रिक्शा खींचने की मज़दूरी को पूरा वसूलने के माफ़िक़ मेरा उस रिक्शे वाले से बात करना।
सुनिए मेरे सवाल, ग़ुस्से और हताशा में ग़रीब को उसकी ग़रीबी का एहसास कराते हुए ख़ुद को ज़िम्मेदार इंसान बनाने की ही सूझ रही है। अर्बन नैतिकता है भई।
“और दोस्त, लड़के बच्चे हैं?”
बिलकुल कॉर्पोरेट ट्रेनिंग का रटाया हुआ सवाल है, एम्पथी दिखाइये कॉर्पोरेट के कर्मचारियों को शिष्टाचार सिखाना मेरा पेशा है। ये सोचना कि डॉक्टर बीमार नहीं होते, ग़लत है। ये भी सोचना की एग्जेक्युटिव्ज़ को शिष्टाचार सिखाने वाले शिष्ट होते हैं, भी ग़लत है। हाँ लेकिन अपने पेशे में पारंगत होने का ढोंग सब कर लेते हैं। क्या वकील, क्या डॉक्टर। फिर मेरा पेशा नाटकीय अदाकारी से कोई साढ़े उन्नीस ही होगा बस।
“जी” हाँफते हुए उस अनपढ़ ने जवाब दिया, साँस थमने के स्वर में बोला “एक बेटी है!”
सुनकर अटपटा लगा! गँवारों के यहाँ बस एक बेटी? एक बेटी यानी की “सेल्फी विथ डॉटर” जितना मॉडर्न जवाब रिक्शे वाला दे रहा है? एक तो साला इश्क़ में चोट क्या खाए हैं, दुनिया अलग मज़े ले रही है।मतलब अब रिक्शे वाले से भी कॉम्प्लेक्स फ़ील होना है? न हो सकने वाली सासु माँ ने क्या दुतकारा, हमें रिक्शे वाला भी हमसे बेहतर लग रहा है। सिनेमा, साहित्य, मीडिया के मुताबिक़ तो इसका डायलॉग कुछ “पांच बच्चे, एक पेट में है और दो एक तो पेट में ही ख़राब (मिसकैरेज) हो गए हैं” जैसे होना था।
लगता है, एम्पथी दिखाने के बदले सिम्पथी मिलने का समय है।लगे रहिये सोच कर मैं ने अगला सवाल दाग दिया|
“पढ़ाते हो? कि किसी के यहाँ बर्तन माँजने जाती है?” इतनी निर्दयी लहजे में पूछने की वजह है। ख़ुद की चोट में घायल को अपनी चोट से पीछा छुटाने का एक तरीक़ा यही है। डिफेन्सिव नहीं होना है। मैं इस गंवार का “माय डॉटर, माय प्राइड” वाला मिडिल क्लास टाइप का घमंड कर पाने का दुस्साहस सहन नहीं कर पाया।
“झय कहा साहेब, बर्तन माँजे ऊखर दुश्मन। बहुत बढ़िया पढ़ाई कर रही है| सब कुछ मस्त चल ला है साहेब। माता-रानी की दुआ से” उसने ग़रीबी की बेचारगी को दिखाते हुए जवाब दिया|
“अच्छा! जानते भी हो कौन क्लास में पढ़ती है? कि वो बेवकूफ़ बना रही हो, और तुम अकड़ में घूम रहे हो। बिटिया बहुते अच्छा पढ़ती है।” पता नहीं उसके सहज जवाब मुझे क्यूँ असहज कर रहे थे। ऐसा कैसे हो सकता है? दो गज का सवाल है, किसी ग़रीब के यहाँ परिवार नियोजन कैसे हो गया? और मैं इतना निष्ठुर क्यूँ हो गया? मैं ने एम्पथी को ताक़ में पटक दिया।
अब तक की बात में चालक को समझ आ गया था कि सवारी को कहीं जाने की जल्दी नहीं है। उसे यात्रा सेवा से ज्यादा यात्रा मनोरंजन की भूख है| उसने पैडल में दम मारना लगभग बंद कर दिया। नतीजतन उसकी सासें थोड़ी सुस्ताई सी होने लगी| उसके चेहरे से लग रहा था कि गर्मी ने जो पसीने से सिंचाई की थी, अब उस पसीने में गरम लू घुल के ठंडक दे रही है| या पता नहीं, शायद ये ठंडक इस बात की है कि शायद वो जान पा रहा है कि मेरी रायचंदी के आगे उसके जवाब भारी गिर रहे हैं। और इस लिए मैं असहज हो रहा हूँ|
शायद उसको पता है कि मैं ने ये बातचीत उससे इसलिए शुरू की थी कि रायचंद की तरह उसे मुफ़्त का ज्ञान पेल सकूँ। मेरे जैसे कई मिलते होंगे इसको, दिनभर ज्ञान पेलते होंगे। इधर अपने ईगो को तेल पिला के मालिश करने के लिए और रायचंदी का मौका नहीं मिल रहा है। कम से कम, उसके चेहरे में जो अभिमान का भाव था, उससे तो यही लग रहा था।
“अब हम तो रिक्शा ही खींचते हैं न, कोई पढ़े लिखे तो हैं नहीं...” वो जवाब देने की भूमिका ही बना रहा था। लेकिन मुझसे रहा नहीं गया| मैं उसकी बात काट के बीच में बोलने लगा। स्टेशन आने वाला था, और मुझे सुनने से ज्यादा बोलना था। लेकिन एक सवाल जो बड़ी देर से खटक रहा था| जिसकी मुझे हैरानी भी थी और ख़ुशी भी, वो पूछने का समय नहीं मिलेगा इस लिए भी उसकी बात काट के सवाल पूछ ही लिया|
“यार, ग़रीबी की हालत में लोग बेटे को नहीं पढ़ाते है, तुम बेटी को पढ़ा रहे हो?” सवाल में आदर्श वाद होने से ज्यादा, इस बात पर जोर था कि अब इसका झूठ पकड़ा जाएगा। मैं स्टेशन जाने से पहले इसको खरी-खरी सुना के अपने आदर्शवादी होने का सबूत दे पाऊँगा|
आपको मेरे सवाल के दांव-पेंच शतरंजी लग रहे होंगे... हमारे एम.बी.ए. में भी यही सिखाते हैं| हर वक्त कमांड ऑफ़ टॉक अपने पास ही रखना चाहिए।
रिक्शा स्टेशन के पास रुका... मैं रिक्शे से उतरा... 30 रुपए देने के लिए 50 का नोट निकाला इस दंभ में की पहले सुनाऊंगा फिर 20 रुपए की बख़्शिश देकर अपने देवता हो जाने का अभिमान कमा लूँगा|
रिक्शे से अपना बैग उठा ही रहा था कि उसने अपने मैले-कुचैले झोले से एक शानदार मिठाई का डब्बा निकाल लिया। डब्बा खोलकर मुझसे मिठाई खाने के लिए आग्रह करने लगा।
“चिंता झन करबे साहेब” उसने मेरी हिचक भी भान ली, “ई जलाराम की मिठाई हे... बहुतय महंगी हवे, बढियां चीज हवे... पूरे दुरुग में अव्वल”
मिठाई वाकई में महंगी और अच्छी दिख रही थी| पैकिंग वाला डब्बा भी बड़ी दुकान का लग रहा था। मिठाई दोनों मापदंडों में खाने योग्य लगी.... और फिर मिठाई है... ऐसी की तैसी मापदंडों की। मैं ने एक मिठाई उठा ली... और हंसते हुए पूछा, किस ख़ुशी में भाई?
“साहेब, आप मन के आशीर्वाद हवे टुरी दस कक्षा में जिला टॉप मारे रही। वो भी अंग्रेजी म साहेब।”
मुझे इस झूठे इंसान पे गुस्सा आने लगा। और अब मैं ने निश्चय कर लिया कि इससे उगलवाना है कि ये झूठ बोल रहा है| रिक्शे वाले की ये औक़ात की ये सबसे बढ़िया इंग्लिश स्कूल में अपने लड़के को तो छोड़ो लड़की को पढ़ाएगा? जी नहीं, उन दिनों “राइट टू एजुकेशन” कानून लागू नहीं हुआ था| गरीबों के लिए शिक्षा के कानून बनाने के लिए सांसद सौ बार बर्खास्त होती है।
“अच्छा? कौन से स्कूल?” मैं ने चिढ़े हुए अंदाज में पूछा...
लेकिन मिठाई से मेरा कोई बैर नहीं था! मैं ने एक और उठा ली! हंसिये मत, क्रोधित हूँ सच में|
उसने एक स्कूल का नाम बताया| लिखते वक़्त मुझे उस स्कूल का नाम याद नहीं आ रहा है| लेकिन मिठाई की लालच में जमा हुए बाकी रिक्शे वालों ने भी इसकी बात सत्यापित की। कहा कि हाँ इसकी लड़की वहां उसी स्कूल में पढ़ती है| इसकी वजह से हम भी अपने लड़कों को पढ़ाने की सोच पा रहे हैं|
मैं अब खुद को घिरता हुआ महसूस कर रहा था। अब उसे झूठा साबित करने से ज़्यादा क्या, कैसे, कब से वाले सवाल अंदर कौंध रहे थे|
“कैसे हो सकता है भाई? इतने महंगे स्कूल? फीस, ड्रेस... और भी कोई आमदनी है क्या?” मैं अब वाकई जानना चाहता था| अन्दर के सारे रायचंद मूर्छित हो गए थे। या शायद उन्होंने मिठाई की रिश्वत से संतोष कर लिया था|
उसने छत्तीसगढ़ी जबान में हिंदी मिलाते हुए कहा “साहेब, जैसे ही बिटिया पैदा हुई! मैं ने माथा पीट लिया... ग़रीबी में पैदा हुई बेटी भी लगन की साड़ी में नजर आती है| लोग समझाते रहे कि सब माई की माया है, लेकिन मेरे अन्दर डर और पछतावा दोनों पसरा जा रहा था|”
हम सब, और बाकी रिक्शे वाले उसे ध्यान मग्न सुनने लगे|
“पहले तो सब कुछ दुख दे रहा था, फिर जब बेटी को गोद लिया तो साक्षात् माँ दुर्गा दिखाई दी... बेटी को उसी माँ के पास छोड़ के सीधे बाजार आया। दुर्गा माई की फोटो ली, गुल्लक लिया.... चुनरी ली और घर में स्थापित कर दिया”
ईश्वर के सकारात्मक प्रयोग का दर्शन मेरे सामने था|
“दुर्गा माँ की फ़ोटू के सामने सौगंध खाई... की हर रोज दो घंटे, कोई भी दो घंटे, की कमाई इस गुल्लक में डालूँगा| बाकी ये देवी जाने और उस देवी की किस्मत जाने!” उसकी आँखों में सच्चाई तैर रही थी|
“साहेब, वो दिन है और आज का दिन है। एक दिन भी ऐसा नहीं हुआ की सौगंध वाले उस दो घंटे की कमाई को मैं ने किसी और काम में लगाया हो| सारे धत करम करता हूँ साहेब! दारू, गाँजा सब के बिना कोई घोडा ही रिक्शा खींच सकता है साहेब। हम जैसे मरियल टट्टू तो कब के मर जाते... लेकिन साहेब कभी उस दो घंटे की कमाई की एक पाई भी इधर उधर नहीं लगाई..|”
मैं ने कुछ समूचे आँकड़े लगा लिए। ये शुद्ध रूप से हिसाब में आया कि रिक्शावाला कितना भी कमा लेगा, बड़े स्कूल का खर्च नहीं उठा पाएगा| उसने बताया कि जैसे-जैसे बिटिया पढ़ती गयी उसके टीचर खुद ही उसके लिए बड़े स्कूल का फॉर्म ले आए। वो लोग उसको पढ़ाने का संकल्प कर लिए| किताबें ड्रेस सब चीजों का बंदोबस्त किया... अब तो कालेज का वजीफा भी बनवाने के लिए उसके टीचर लोग लगे हुए हैं! वो लोग मुझसे कुछ नहीं मांगते लेकिन मेरे गुल्लक के पैसे मुझसे हमेशा लेते हैं... बिना कुछ कहे की कम हैं की ज्यादा”
टीचर लोगों को क्यों इतना अपना पन लगेगा यार? कहाँ होता है ऐसा? लेकिन इतने लोगों के सामने ये इंसान मुफ़्त में मिठाई तो नहीं खिलाएगा? तो फिर इस सवाल का जवाब पूछा जाए या नहीं?
“का है ना साहेब, टुरी भाग में लिखाई लाई है!” एक दूसरा रिक्शा वाला अपनी पेलने लगा “सच माई की अवतार है बिटिया, हमारे सरकारी स्कूल में एक दीदी आती हैं, कोई कम्प्यूटर का जाने सिखाने के लिए। वो कोई मास्टरनी नहीं है, बैंक में नौकरी करती है। उसके पाँच बहिन और एक भाई रहे, बचपने से उसके घर में लड़के को खूब इज्जत मिलती थी और पाँचों बहने रूखा-सूखा खा के जीती थी। उसके बाप को बड़ा घमंड था कि टुरा कमाई खिलाई बड़ा होके। लेकिन जवान लड़का खतम हो गया! सदमे में उसका बाप भी खतम हो गया। दीदी जी का भाई और बाप दोनों का देहांत हो गया। ये दीदी थोड़के पढ़ी लिखी रहीं तो बाप की जगह नौकरी मिल गयी। तब से दीदी लड़कियन के लिए ग़रीब बच्चन के बरे बहुत पैसा बहाती हैं। जाने कहा से लाती हैं। अब तो बहुत लोग जुड़ गए हैं उनके साथ। इसकी बिटिया के लिए वही सब टीचरन के साथ लगी रहती हैं।”
बात कुछ तो समझ आ रही थी, लेकिन पढ़ाई? वो भी ग़रीब टोले में? वो भी लड़की? जो कुछ भी था असम्भव सा ही था, लेकिन समझ आ रहा था।
“साहेब, आज ये मिठाई मैं ने पूरे स्कूल में बांटी है.... सब मास्टर लोगों के घर जाके बांटी है। उस स्कूल का कोई और बच्चन के रईस माँ-बाप ने इतना मिठाई नहीं बांटा होगा जितना मैं बांटा हूँ साहेब! मुझे फ़ख़्र है मेरी बेटी पर|”
उसकी रूंधी आवाज में और अभिमान में डूबते सूरज की लालिमा छहर गयी थी।
कई घंटों तक किसी से कुछ नहीं बोल पाया... ट्रेन में बैठ कर धूप को पीले होते और फिर लाल होते देख रहा था| बिलकुल याद नहीं था कि थोड़ी देर पहले ही दिल टूटा है... वापिस बैंगलोर जाने का इरादा छोड़ के, सीधे घर चला गया। इस बार, शायद पहली बार पापा से गले लग के रो दिया था। काश! उन दिनों मेरे पास कैमरा फोन होता। काश उस इंसान की तस्वीर ले सकता!
छत्तीसगढ़! नाक के बीच में बाली पहने एक मशरूफ टोकरी बुनती हुई बूढ़ी महिला की तरह ही है| निस्वार्थ, स्वावलंबी और विवेक पूर्ण| कोई इसे यहाँ के पहाड़ों में दबे लोहे के लालच में सिंगापुर भले ही बना दे। मेरे जीवन में भिलाई कभी भी इस्पात का कारखाना नहीं बनेगा। यूँ तो भिलाई ने इतना लोहा उगला है कि अगर उगले कुल लोहे से रेल की पटरियां बनाई जाए, तो पूरी दुनिया को सात बार लपेटा जा सकता है। मगर छत्तीसगढ़ मुझे इस रिक्शे वाले के पसीने में दिखता है लोहे में नहीं।