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J Rajaram

मास्टर का प्रेम

नहीं हर एक को मुमकिन है एक जैसी हैसियत
मिरे हिस्से में फ़र्ज़ आया, तिरे हिस्से में नफ़ासत हर किसी का नामकरण उसके परिवार वाले करते हैं, लेकिन मास्टर का नामकरण दो बार होता है। पारिवारिक नाम उसका चरित्र बताता हो या ना बताता हो, छात्रों का दिया हुआ नाम उसका विचित्र ज़रूर बताता है। जी हाँ विचित्र, क्यूँ कि हर मास्टर विचित्र होता है। कितना ही जवान क्यूँ न हो, छात्रों से बूढ़ा ही होता है। नए नवेले मास्टर की दोहरी मरम्मत होती है। स्टाफ़ रूम में उसे प्यून से थोड़ा ही ऊपर समझा जाता है और क्लासरूम में उसका जो सलूक होता है उसको ना ही बयान करें तो बेहतर। युवा मास्टर के रूप में प्राईवेट संस्थानों को एक गधा मिल जाता है। मल्टी पर्पज गधा, जहाँ चाहे हाँक दो, ग़लती कर बैठे तो ठीकरा भी उस पर ही डाल दो। सारी मलामत उसकी और वेतन? दर्द तो आगे सुनिएगा।

मास्टर का प्रेम
“हर किसी का नामकरण उसके परिवार वाले करते हैं, लेकिन मास्टर का नामकरण दो बार होता है। पारिवारिक नाम उसका चरित्र बताता हो या ना बताता हो, छात्रों का दिया हुआ नाम उसका विचित्र ज़रूर बताता है। जी हाँ विचित्र, क्यूँ कि हर मास्टर विचित्र होता है। कितना ही जवान क्यूँ न हो, छात्रों से बूढ़ा ही होता है। नए नवेले मास्टर की दोहरी मरम्मत होती है। स्टाफ़ रूम में उसे प्यून से थोड़ा ही ऊपर समझा जाता है और क्लासरूम में उसका जो सलूक होता है उसको ना ही बयान करें तो बेहतर। युवा मास्टर के रूप में प्राईवेट संस्थानों को एक गधा मिल जाता है। मल्टी पर्पज गधा, जहाँ चाहे हाँक दो, ग़लती कर बैठे तो ठीकरा भी उस पर ही डाल दो। सारी मलामत उसकी और वेतन? दर्द तो आगे सुनिएगा।
प्रेयसी पूछ रहीं हैं, छात्रों ने मेरा क्या नाम रखा है? अव्वल तो किसी मास्टर को उसका दूसरा नाम करण कान में फूंक के तो किया नहीं जाता। कोई राशि वाला नाम तो है नहीं कि सिर्फ़ मास्टर को ही पता हो। बल्कि, ये नाम तो मास्टर को छोड़ के पूरी कायनात को पता होता है। कई बार तो मास्टर के सामने ही, उसके नए नाम से छात्र उसकी ही मलामत कर रहे होते हैं ,और वो बेचारा समझ भी नहीं पाता कि किसकी उड़ रही है। बहरहाल, मास्टर जी को ख़ूब पता था उनका दूसरा नाम क्या है, वो नामकरण क्यूँ हुआ है। लेकिन कुछ बातें मोहब्बत में भी छिपायी जाती हैं। अब वो छुपा पाए या नहीं, ये उनका हुनर है।
प्रेम की परिभाषा के चक्कर में बड़े-बड़े प्रेम का शिकार हो गए हैं ।इसलिए मैं सतर्कता पूर्वक इसकी परिभाषा किये बगैर, इसके राहू की भांति मास्टरों के जीवन में आने की और इस विडम्बना कि विवेचना करता हूँ।
मास्टर एक मजबूरी से लदी कौम है। मसलन, यदि कालेज में कलेजा थिरका देने वाला म्यूजिक चल रहा हो और आपको विद्यार्थी पर निगरानी रखने की नौकरी दी गयी हो, तो यातना और पशोपेश के दोहरे दर्द को समझना किसी गैर मास्टर के बस में नहीं है। कुछ ऐसा ही दोहरा योग सेम तब होता है, जब मास्टर को अपनी प्रेयसी के साथ किसी प्रेम प्रयुक्त जगह की तलाश करनी हो। इसका वास्तविक विभेदन तब होता है जब मास्टर की प्रेयसी किसी बड़े शहर की रहने वाली हो और उसको मास्टर होने की मजबूरियों का भान न हो। गाड़ी के पीछे मंद-मंद मुस्काते हुए वो मास्टर जी की अभिमानी अकड़ की भर्त्सना कर रही होती है। और मास्टर जी हर उपयुक्त जगह से गाड़ी घुमाकर वापिस जाने को मजबूर हो जायें तो पीड़ा बयान करने के काबिल कहाँ रह जाती है?
दर्द बयानग़ी के इस हुनर को इतनी आसानी से कैसे जाने दूँ? जबकि एक अहम् पहलू तो मैंने बताया ही नहीं। हां जी, भारत देश में बंद नाम का एक त्यौहार होता है। जिसके मूल कारक की विवेचना स्वयं अमर्त्य सेन और चाणक्य भी नहीं कर सकते। इस पर्व के दिन सरकार, व्यापारी और कर्मचारी को छोड़ कर सभी मशरूफ रहते है। छात्र वर्ग के लिए बड़ी ही मुश्किलों का दिन होता है। वो घर में पिता के डर से रह नहीं सकता और प्रेयसी से मिलने बहार जा भी नहीं सकता। हाँ! छात्रावास में रहने वाले प्रजाति के छात्रों की विशेष चाँदी हो जाती है। इस पर भी अविवाहित मास्टरों को कोई राहत नहीं मिलती।
एक ओर भारत बंद रहता है, दूसरी ओर छात्र चालू रहता है। मोबाइल से बात कराने वाली कंपनियों का खूब भला हो जाता है। खैर, मैं मास्टरों की मजबूरी में फोकस करता हूँ। हुआ यूँ कि, प्रेयसी से मिलने का समय और भारत बंद एक ही दिन आया। ये और मैं, दो चार प्रेम की बातें करने के लिए, ज़माने की नजर से छुप के बैठने की जगह तलाश रहें हैं। इसी कोशिश में गाड़ी को इस पार्क से उस पार्क, बस चक्कर ही लगा रहे हैं।
मास्टर जो की कौम से ही शिकायत धर्मी होता है, उसे पहली बार एहसास हुआ कि छात्रों के भी कई मामले हैं, शिकायत करने के लिए। मसलन ये ज्ञान कि इंदौर शहर, चींटियों की कालोनी की तरह है, ऑल्वेज़ वर्क इन प्रोग्रेस। पता नहीं यहाँ ख़ुदा ज़्यादा है कि खुदाई ज़्यादा है। सडकों से उगलती धूल मास्टर जी को क्लास में बैक बेंचेर्स से ज़्यादा परेशान कर रही है। एक फलसफा ये भी है कि अगर प्रेयसी पीछे गाड़ी में बैठी हो, और उस पर आपको रौब जमाना हो, तो ज़माने भर की बुराई करते रहो। ऐसा करने से ज़िम्मेदार होने का एहसास सम्भावित अर्धांगिनी को होता रहता है।
खैर एक रोमांटिक जगह की तलाश में मास्टर के शरीर से मास्टर मन चल बसा। वो भी बॉलीवुड के अधेड़ उम्र के नायकों की तरह अपनी रोमैन्स टीटीयाने लगे। प्रयास इतना सफल हुआ कि प्रेयसी को अब जा के एहसास हुआ कि वो किसी कक्षा में नहीं अपने प्रेमी की गाड़ी के पीछे बैठीं हैं। मास्टर को भी अपने हुनरमंद होने का एहसास अभी-अभी ही हुआ। क्योंकि कभी न हो सकने वाली घटना पल में हो जाये ऐसे ही प्रेयसी ने मास्टर के गले में अपनी बाहें पसार दी। एक अदनी सी मोटर साइकिल की आधा गज लम्बी सीट में भी वो दोनों जरा असहज नजदीकी से बैठ गए।
एक नागरिक होने के नाते, मास्टर जी ने देश के प्रधान मंत्री को धन्यवाद दिया, क्योंकि उन्होंने हाल ही में डीजल की कीमत बढ़ाई है, पेट्रोल की नहीं। वर्ना गरीब मास्टर जिसका वेतन, सरकारी मुलाजिम के पेंशन जितनी होती है, वो मॉल, सिनेमाघर, चिड़ियाघर, उपवन और बायपास रोड में रोमांटिक मन के साथ गाड़ी कैसे चला पता? अच्छा, इंदौर के रचनात्मक यातायात के नियमों का भी मास्टर को तब एहसास हुआ, जब अमूमन प्रेयसी ने अपने मुख को दुपट्टे से ढक लिया। मास्टर का चेहरा धूल माटी से पहचानने लायक़ ही नहीं बचा।
चेहरा ढकने के बाद मास्टर जी को इंदौर नगरपालिका पर सचमुच का ग़ुस्सा आया। शहर में धूल कैसे आ जाती है भला? क्या नगरपालिका ख़ुद रोज रात को सड़क में ट्रकों धूल फेंकती है? इतना बड़ा निकाय, इतने बड़े शहर में भला कैसे इतने धूल का इंतज़ाम करती होगी? मास्टर भाव विभोर हो गया। तभी प्रेयसी ने मास्टर जी के उदास होने का सबब पूछ लिया।
ये एक और वजह है जिसके कारण विश्व के प्रकांड पंडित भी स्त्री मन को नहीं समझ पाए। मास्टर जब शहर के प्रति धन्य भाव में चूर थे, प्रेयसी को उनके उदास होने की अनुभूति हो गयी। भला मास्टर जी की कोई औक़ात की वो अपनी प्रेमिका को समझाने की कोशिश भी करते? उन्होंने भी बॉलीवुड के नौलेज का उपयोग किया, कहा 'एक पहर बीत गया, हम दोनों को जालिम ज़माने ने गुफ़्त -गू की जगह तक न बख्शी।’
नारी मन, उनके हलके तन से बिलकुल उलट होता है। सो वो बायपास के किनारे किसी भरी ट्रक सी पलट गयी। चुटकी लेते हुए कहा "किसने कहा था मास्टर बन जाओ?”
मास्टर का बॉलीवुड तेवर जाता सा लगा, लेकिन प्रेमिका ने बात संभाली "अगर आज आप मास्टर न होते, तो आप अपने ही छात्रों से बचते-बचते यूँ बायपास में न घूम रहे होते?"
"हाँ सो तो है!" मास्टर जी ने गहरी सांस ली और धीरे से कहा "चलो किसी मंदिर में चल कर पेड़ के नीचे बैठेंगे!"
बात पूरी करते ही मास्टर जी आँखें बंद कर के ईश्वर का ध्यान करने लगे और मन ही मन कहा "हे प्रभु! इस नारी मन को मना ले, तेरे दर्शन भी कर लूँगा और किसी रसूखदार होटल में जाने का खर्च भी बच जाएगा। आज पक्का नारियल भी चढ़ा दूंगा"
देश में रिश्वत की आंधी इस तरह चल निकली है कि आम आदमी भगवान को भी मस्का लगा लेता है। हालाँकि मस्का पालिश में हुई गलतियों के दुष्परिणाम अभी मास्टर जी को नहीं पता हैं। सो कुछ यूँ हुआ, शंकर जी के मंदिर की कल्पना करते-करते मास्टर जी ने नारियल का लालच डाला था। भला भोलेनाथ को नारियल क्यों भाने लगा? यही अगर दूध का भी प्रस्ताव दिया होता तो कम से कम शंकर जी के नाग ही प्रसन्न हो जाते। फिर भला भांग, धतूरे के सेवक, भोले नाथ क्यूँ प्रसन्न होने लगे? 
मास्टर जी की गाड़ी को पेट्रोल पिलाया गया और वो चोरल के लिए रवाना हो गए। शहर से कुछ दूर एक झरना नुमा पानी का स्त्रोत है। इंदौर व्यावसायिक राजधानी से पहले होलकर राजवंश की सैनिक छावनी थी। महेश्वर होलकरों की राजधानी थी, जो नर्मदा किनारे बसी है। कोई भी रियासत किसी न किसी बड़े जल स्त्रोत के पास ही बसी हुई है। इंसानी बसाहट की ये वैश्विक थ्योरी है, इंदौर किसी रियासत की प्राथमिकता नहीं थी। आगर, बुरहानपुर, महेश्वर ये सब इंदौर से पुराने शहर हैं, जो अब शहर भी क्या ही कहलायें। इंदौर, अंग्रेज़ी दौर में होलकरों ने व्यापारिक, राजनाइक और सैन्य दृष्टिकोण से बसाया था। फिर, अंग्रेजों ने सैन्य छावनी को इंदौर से 20 मील दूर महु में स्थापित कर, रेलमार्ग बना दिया, वो भी होलकरों के ख़ज़ाने से। इस वजह से इंदौर तेज़ी से शहर होने लगा। अगर एक छोटी सी सहायक नदी, कान्ह को छोड़ दें तो इंदौर में कोई भी प्राकृतिक जल स्त्रोत नहीं है। होलकर ने कई झीलें खुदवाई लेकिन आधुनिक और मशीनी महामानवों को झील के नीचे दबी ज़मीन की क़ीमत झील के पानी से ज़्यादा मिल रही है। झीलों की हत्या, पानी की समस्या भयावह हो रही है। पानी की क़िल्लत झेल रहे, इस शहर के आस-पास प्राकृतिक जल स्त्रोत का छोटा सा प्रपात भी खूब लुभाता है। इस उम्मीद में कि इस मौसम में वहां कोई छात्र युगल नहीं मिलेंगे। मास्टर जी अपनी प्रेमिका के साथ, चोरल घूमने निकल लिए।
होनी को कौन टाल सकता है। मास्टर भारत में दूसरी ऐसी प्रजाति है, जो चुटकुलों और कहानियों में हास्य पैदा करते हैं। पहले के बारे में तो आप santabanta.com में पढ़ ही लेते होंगे? हो भी क्यूँ न, मास्टरों की हरकतों में हास्य शुमार ही इतना होता है। आज कल अध्यापक शिक्षा का उपक्रम नहीं रह गए हैं। पूँजीवादी युग में माँ सरस्वती के फकीर दो जून की रोज़गारी की हैड तक जा चुके हैं। वो कालेजों में पढ़ाने के बजाये हर वो काम करते हैं, जिसमे दमघोटू परिश्रम और हास्य पैदा होता हो। इसी वजह से उनका नियोजन सर्वथा विफल रहता है। जैसा की अभी हुआ। प्रियसी ने गाड़ी के बेहकने की सूचना चालक को दी। चालक जो अब मास्टर नहीं था, बल्कि कोई आवारा शायर हो चुका था। पेट्रोल में दारू की मिलावट की शायराना ढंग से अपनी प्रियसी को समझाई। लेकिन प्रेमिका थीं बड़े शहर की बड़ी मोर्डेरन लड़की। मास्टर ठहरे किसी स्कूल की घंटी।
"मास्टर जी की हवा निकल गयी है “हवा” पहिया देखिये!" प्रेयसी ने शहरी हाव-भाव से मास्टर के मजे ले लिए। दर्द की बात तो ये है कि, मास्टर अपनी क्लास की तरह यहाँ भी मन मसोस के रह गए। सड़ा सा मुँह लिए टायर को निहारते रहे।
धूल से सने मास्टर जी पर सूर्य देव का प्रकोप मानो सभी छात्रों की बद्दुआ लगी हो। प्रेयसी को अपने पूर्व जनम के पापों का प्रायश्चित सा भान हुआ होगा। वो भी अपने प्रियतम मास्टर जी को निहारते हुए प्रेम भाव से मुस्कुरा रही थी। पैदल, धूप में चलने का दर्द उसके माथे के पसीने से साफ़ छलक रहा था। मास्टर को पहली बार उस प्रश्न का उत्तर मिला जो उसने कई लोगों से पूछा था। "इस देश में डाक्टर, इंजिनियर तो सब बनना चाहते हैं, कोई टीचर क्यों नहीं बनना चाहता?"
पंचर गाड़ी, भरी धूप में खींचते हुए, गोरी चमड़ी की फूल सी नाजुक अपनी सखी को धुल पसीने में तर, पैदल चलते हुए देख, आज मास्टर जी को अपने मास्टर होने पर वास्तविक दुःख हो रहा था। गुस्से में हाँफता मास्टर, तेज़ी से गाड़ी आगे की ओर खींचने लगा ताकि उसकी प्रेयसी, उसके आंसू और पसीने में भेद न पता लगा सके। वेदना सिर्फ अपनों के मर जाने में नहीं होती है, बल्कि अपनों के सपनों को पूरा न कर पाने में भी होती है। इस देश के भविष्य निर्माता का वर्तमान जिस दर्द में हैं, वो भविष्य को कितना संवार पाएगा, इसका अंदाज़ा मास्टर को गाड़ी के रीयर व्यू मिरर में झीने दुपट्टे से ढके लाल चेहरे में साफ़ लिखा दिखा। देश से क्या ममता रह जाएगी अगर इस देश के रखवाले, ममता को उपजाने वाले प्रेम को ही न पनपने दें?
ममता सबसे पवित्र है, लेकिन ममता का जन्म, दो युगल परिणय से होने वाले प्रेम से होता है। वास्तव में सरस्वती की ज्ञान वीणा का उपयोग प्रेम के लिए ही होता है। लेकिन लक्ष्मी के कुबेरों ने और माँ काली के असुरों ने सरस्वती के हंस को घायल कर दिया है। प्रेम आज विलाप में है। आज अध्यापक मन परास्त है, उसका प्रेम शर्मिंदा है। लज्जित भाव एक ऐसा कलंक है, जो मनुष्य को प्रतिशोध तक धकेल देता है, पर परमात्मा की ममता तभी छलकती है, जब प्रार्थी दुःख की पराकाष्ठा पर हो।
चोरल से लौटते हुए दो प्रेमी छात्र युगल ने अपने मास्टर को पहचान लिया। वो तुरंत रुके, मास्टर के हाथ से गाड़ी ली और दूसरी गाड़ी में मास्टर जी को स:प्रेमिका पास के किसी होटल तक जाने को कहा।सब कुछ इतना झटपट हुआ कि, मास्टर जी ये नहीं पूछ पाए कि वो प्रेमी जोड़ा कैसे इस समस्या को हल करेगा। अपनी प्रेमिका को जल्द से जल्द राहत देने की कोशिश में उन छात्रों को उनके हाल पे छोड़ दिया। बस चल दिए, लगने लगा था ढलती पीढ़ियों से उठती पीढ़ियों के रिश्ते दरक रहें हैं। निजीकरण की प्रतिस्पर्धा में शायद मास्टर होना वाक़ई अपमान का पेशा बन गया होगा। मगर जिस अदा से तरुणाई लताओं ने बरगद की बरोहों को थाम लिया, जैसे मुट्ठी से झरती रेत को अंजुली ने रोक लिया हो। अगर मास्टर सरस्वती का हंस है तो ये छात्र कमल पुष्प हैं।
शहर से दूर वो होटल एक शांत प्रेम पूर्ण जगह थी, जहाँ चिड़ियों की कलरव प्रेम के माधुर्य को प्रचालित कर रही थी। मास्टर मन तरस रहा था इस मिठास के लिए। अथक प्रयासों के बाद मिला था, ये असीम प्रेम का माहौल। थोड़ी देर में वो चारों छात्र भी आ गए। चाय की चुस्कियों के साथ माहौल चुटकुलों और ठहाकों में सराबोर हो गया। मास्टर का छुप के अपनी प्रेयसी को देखना और उसका धीरे से मुस्कुरा देना, उन ठहाकों के बीच बड़ा रोमांटिक लग रहा था। तन्हाई नहीं थी लेकिन अपने प्रेम को छिपाना पड़े ऐसी मजबूरी भी नहीं थी। कई बार हम अभिव्यक्ति की आज़ादी खोज रहे होते हैं, तन्हाई उसका अपभ्रंश मात्र है। एक ही टेबल पर बैठे दोनों मेज़ के नीचे हाथों में हाथ रखे, अठखेलियाँ भी कर रहे थे और छात्र युगलों से नफ़ासत में गुफ़्त-गू भी जारी थी। ऐसा नहीं है कि इन अठखेलियों का किसी को भान नहीं था। यहाँ मर्यादा और मोहब्बत एक दरी में बैठ कर दावत कर रहें हैं। छात्रों ने मास्टर जी की चुटकी भी ले ली, सब हँस भी लिए और अठखेलियों में अल्प विराम भी नहीं हुआ।
“बेटा, पैसे लगे होंगे गाड़ी बनवाने में?” मास्टर जी ने छात्रों से पूछा।
“किसी दिन एक लेक्चर ज़्यादा पढ़ा देना सर, हिसाब ही करना है तो।” हंसी मज़ाक़ में अदब पेशगी हो गयी।
“सर, शाम को फ़्री हों तो सभी लोग मूवी चलें?” छात्रा ने पूछ लिया।
मास्टर जी ने आँखों ही आँखों में सवाल आगे बढ़ा दिया। प्रेम के संवाद का कोई जुदा ही तंत्र होता है। बिना किसी शब्द बयानगी के मास्टर जी ने सामूहिक बयान जारी कर दिया।
“नहीं बेटा, मैडम आज शाम को ही पुणे वापिस लौट रहीं हैं” मास्टर जी ने धन्यवाद देने के लहजे में पेशगी वापिस कर दी। दिनभर कुछ और ही होता रहा, शाम होते होते ज़िंदगी ने कई पाठ पढ़ा दिए।

ये नज़र, ये नज़ारे और ख़ुशनुमा मंजर
मैं भूल ही गया क्या-क्या बीती दिनभर

शाम हुई और चिड़ियों की तरह इन प्रेमी युगलों के भी घर लौटने की बेला आन पड़ी। गाड़ी में बैठते ही उन्होंने मास्टर जी के कानों में कहा "मास्टर जी! क्या पढ़ाते हो जो तुम्हें इतना आदर मिलता है?" गाड़ी के शीशे में उनकी शर्मीली मुस्कान देख कर कुछ न कहने को जवाब समझकर फिर आगे कहा "शायद ही किसी को भी आज वो सुख और आदर मिलता होगा, जो आज मुझे आपके साथ मिला है।”
भीनी सी मुस्कान लेते हुए मास्टर जी आसमान की ओर देख अपने मास्टर होने के गर्व से निहारने लगे। उनके होंठों में अभिमान भरी वो हंसी देर तक चिपकी रही....
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